पृष्ठ:बाणभट्ट की आत्मकथा.pdf/३९३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
३८०
बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाण भट्ट की आत्म-कथा विधि समाप्त कर लेने के बाद ही उसे समय मिलता था। आज आते ही उसने निषुणिका की मृत्यु का संवाद सुना । वह चिता पर फूल चढ़ाने के उद्देश्य से जाना चाहती थी, परन्तु भट्टिनी की शोक-व्याकुले अवस्था देख कर रुक गई थी । यह अच्छा ही हुआ नहीं तो भट्टिनी की उस समय जो अवस्था थी उससे अनर्थ हो जाने की आशंका थी । सुचरिता शान्त-निष्पन्द प्रतिमा की भाँति बैठी थी और भट्टिनी अर्द्धशायित भाव से उसकी गोद में लेटी हुई स्थिर दृष्टि से आकाश की अोर देख रही थीं। मुझे उन्होंने नहीं देना । सुचरिता ने संकेत से मुझे चुपचाप बैठ जाने को कहा । दीर्घकाल तक वहाँ उसी प्रकार की शान्ति रही । भट्टिनी की अाँखों में अश्रु नहीं थे अन्तर्वर्ती शोकाग्नि ने उन्हें एकदम सुखा दिया था। उनकी श्रींखें न जाने किस अनन्त की ओर उड़ जाने को व्याकुल थीं । अवश भुज-लताएँ सुचरिता की गोद में झुन्न पड़ी थीं और शिथिल धम्मल्ल उसके वाम स्कंध पर विलुप्त हो रहा था। भट्टनी की इस दारुण अवस्था से मेरा हृदय फटा जा रहा था । निपुणिका, तूने यह क्या किया। सारे जीवन को तूने तिल-तिल देकर के जिस पाषाण को प्रसन्न करना चाहा था वह अन्त तक पाषाण-पिण्ड ही बना रहा पर जिस नवनीत पुत्तलिका को उसने बल्कल की भाँति आच्छादित कर रखा था वह कैसी हो गई है ! हाय, अभागे बाणभट्ट को यह दिन भी देखने थे ! अार्थ वाभ्रव्य ने जत्र से कहा था कि अपने को नि:शेष भाव से दे देना ही वशी करण है उसी दिन से निपुणिका में परिवर्तन शुरू हो गया था । रत्नावली की वासवदत्ता में उसने वही वैशिष्ट्य देखा था । छिः सरले, वशीकरण के लिये यह कैसा श्रारमदान है ! मैंने अखि मूद कर स्पष्ट ही देखा कि निपुणिका स्वर्ग में प्रसन्न भाव से विचरण कर रही है । वह मुस्कुरा कर कह रही है --'मैंने कुछ भी नहीं रखा; अपना सब कुछ तुम्हें दे दिया और भट्टिनी को भी दे दिया। दोनों दानों में कोई