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बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाण भट्ट की आत्मकथा ३८१ विरोध नहीं है । प्रेम की दो परस्पर विरुद्ध दिशाएँ एकसूत्र हो गई हैं ! हाय, क्या सचमुच ये एकसूत्र हो गईं हैं ! भट्टिनी ने क्षीण कंठ से सुचरिता को पुकारा, ‘भद्र सुचरिते ! ‘हाँ अायें ।।। भट्ट आ गए हैं ? आ गए हैं देवि । ‘बुला दो । ‘यहीं हैं । भट्टिनी ने अकचका कर उठने का प्रयत्न किया । सुचरिता ने संयत किया-धीरे देवि १ परन्तु भट्टिनी रुकी नहीं, उठ कर बैठ गई। मेरी ओर देर तक देखती रहीं । भट्टिनी की उस दृष्टि ने मेरे मर्मस्थल को भेद दिया। मेरी आँखों में जो अश्न-धारा अब तक रुद्ध थी वह अब बांध तोड़ कर बह चली । सुचरिता भी रोने लगी । लेकिन भदिनी उसी प्रकार भूली सी, भ्रमी-सी ताकती रहीं । कुछ देर इसी प्रकार बीता । फिर बोलीं-भट्ट, वह चली गई। तुम रह गए, मैं रह गई। हाय भट्ट 19.-कह कर वे शय्या पर अवश भाव से पड़ गई। सुचरिता ने धीरे-धीरे उनका सिर दवाने लगी और संकेत से मुझे पंखा झलने को कहा। धीरे-धीरे भट्टिनी सो गई। | सुचरिता ने मुझे स्कंधावार से बाहर उठ चलने का संकेत किया। बाहर धावक और चारुस्मिता तब भी शान्त भाव से बैठे थे। सुच- रिता ने उन्हें देखा ही नहीं। उसने मुझे कुछ आश्वस्त करने का प्रयत्न भी किया । उसके स्वर में अत्यन्त स्पष्ट मधुर ध्वनि तब भी ज्यों की त्यों थी । यद्यपि उसके भीतर अपनी प्रिय सखी से न मिलने का क्षोभ बहुत अधिक था पर वह शोक-संविग्न बिल्कुल नहीं थी। बड़े प्रेम से उसने कानपुर्णिका धन्य हो गईं आय, उसकी चिन्ता छोड़ो । परन्तु उसका बलिदान तभी सार्थक होगा जब तुम उसके दान