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बाण भट्ट की आत्म-कथा

३८४ बाण भट्ट की आत्म-कथा अवसन्न हैं । तुम्हारी स्तति कौन गावे १ जैसे तैसे मैंने पढ़ा- जलौघमा सचराचरा धरा विषाण कोट्याऽखिल विश्वमूर्तिना । समुद्घता येन वराहरूपिणा स मे स्वयंभूर्भगवान् प्रसीदतु ! भट्टिनी अवसन्न होकर महाबराह के पाद प्रान्त में लुढ़क गई । हाय, यह क्या दूसरा अनर्थ हुया १ उनका मुख-मण्डल प्रभातकालीन चंद्र-मण्डल के समान निष्प्रभ हो गया । मैंने भट्टिनी का सिर गोद में ले लिया । महावराह के लिये निवेदित पवित्र जल के दो-चार बंद मुख में दिए और कातर भाव से प्रार्थना की- 'हे भगवान् मेरे पापों का प्रायश्चित क्या अभी नहीं हुआ ? हे अखिल ब्रह्माण्ड गुरो, यहाँ तक घसीट कर क्या तुम मुझे नरक द्वार पर छोड़ना चाहते हो ? हे त्रिभुवन मोहिनी, भट्टिनी को बचाश्री ।' मेरी प्रार्थना व्यर्थ नहीं गई भहिनी की अाँखें खुल गई। वे अवश भाव से शुन्य दृष्टि से ताक रही थीं । मैंने उत्साह देने के लिये कहा---'देवि, उठो तुम्हें कैतिर होना नहीं शोभता । नरलोक से किन्नरलं कि तक व्याप्त एक ही रागात्मक हृदय का संधान पाना बाकी है। अपने सेवक का उचित मार्ग प्रदर्शन करो । निपुर्णिका शोच्य नहीं है । शोच्य मैं हूँ। मुझे और भी अनाथ मत बनने दो । उठो देवि, आर्यावर्त को बचाना है, म्लेच्छ देश को बचाना है, मनुष्य जाति को बचाना है । देवपुत्र नंदिनी की यह अव- शता उचित नहीं है । भट्टिनी की शिरात्रों में चैतन्य धारा प्रवाहित हुई। उन्होंने पद में से सिर उठाने का प्रयत्न नहीं किया । क्षीण कंठ से बोलीं-नीचे से ऊपर तक एक ही रागात्मक हृदय व्याप्त है । निपुणिका ने उसे स्पष्ट कर दिया है । क्या कहते हो भट्ट, तुम मेरी सहायता करने का वचन देते हो ? मैंने अबिचलित कंठ से कहा-‘हाँ देवि, सेवक प्रत्येक प्रज्ञा के लिये तैयार है। | भट्टिनी उठकर बैठ गई। धीरे-धीरे बोलीं- आर्यावर्त की विपत्ति इस बार कट गई हैं भट्ट । आचार्य भवपाद ने बताया है कि इस अल्प-