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बाण भट्ट की आत्म-कथा

३२ । बाणु भट्ट की अत्म-कथा समान खिल गई । स्मयमान (मुस्काते हुए) मुखमण्डल के मृदु संभार के कारण वा ईषद् बक्र हो गई और उसने उल्लास-गिद् स्वर में साधुवाद दिया–अभिनय उत्तम कोटि का हुआ है। मैंने संकोच और ब्रीड़ा की हँसी हंसी । मैं इन बातों में सिद्धहस्त था । निपुणिका इस प्रकार चलने लई, जैसे उड़ रही हो । बोली-“यह ध्वनि मद्- नोद्यान से आ रही है, सुदक्षिणा ! आज चैत्र शुक्ल त्रयोदशी है। अाज मदन-पूजा का दिन है। आज कुमारियों ने व्रत किया होगा, कामदेव की पूजा की होगी और वरदान में अपने अभिनषित वरों को माँ लिया होगा । कान्यकुब्ज में यह उत्सव बड़े आडम्बर के साथ मनाया जाता है। आज मदनोद्यान में कुमारियों ने फूल चुने होंगे, हार गूथे होंगे, कैकुम और अबीर का तिलक लगाया होगा और लाक्षा रस से भूर्जपत्र पर अपने-"प्रपने अभिलषित वरों की प्रतिमा बनाकर चुपके से भगवान कुसुम-सायक को भट किया होगा। अाज अन्तः पुर में बद। धूम धाम होगा । अशोक में दोहद उत्पन्न करने के लिए अन्त:पुरिकाएँ प्रमोद-बन में चली गई होंगी । वहाँ आज मदिरा और मृदग का उत्सव चल रहा होगा । भट्ट, नहीं, सुदक्षिणे, अाज युवतियों के अनन्द-केलि का उत्सव है । उस राजबाला के उद्धार का इससे अधिक उपयुक्त अवसर' दूसरा न मिलेगा । तुम्हारे अन्दर कुछ झिझक देख रही हूँ । ना हला, यह झिझक ठीक नहीं है ! मैं चुप सुनता रहा । झिझक तो मेरे अन्दर नहीं थी ; पर यह संशय ज़रूर था कि पहचान लिया जाऊँगा । ज़रा क्षीण कंठ से मैंने अभिनय-सा करते हुए कहा--‘हला, लज्जा तो तरुणियों का स्वाभा- विक अलंकार है । निपुरिएका ने रस लेते हुए कहा- ‘होने दो न ; ' इस प्रकार के एक उत्सव का कुछ इससे मिलता-जुलता वर्णन भवभूति के ‘मावती-माधव' नामक प्रकरण में है।