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बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाण भट्ट की आत्मकथा हुई थी। उसके हाथ में एक नंगी तलवार थी और बाईं ओर एक हुद्र कृपाण कोषबद्ध अवस्था में झूल रहा था। वह स्त्री बहुत मज़बूत तो नहीं थी ; पर उसका वेश देखकर मुझे ऐसा लगा, मानो विषधरों से लिपटी हुई कोई चन्दन-लता हो । क्षण-भर के लिए मेरा कलेजा धड़क उठा ; पर ज़र। समीप जाते ही रहस्य खुल गया। कठोर वेश ने उसकी स्वाभाविक कोमलता को और भी निखार दिया था। यद्यपि उसका रंग काला था; पर एक मोहके दाप्ति उससे साफ़ झलक जाती थी । वह एक जीवित नीलमणि की सुकुमार पुत्तलिका ही जान पड़ती थी । वैसे उसका सारा शरीर अगुल्फ-लम्वे नील कंचुक से ढंका हुश्रा था और मस्तक पर लान उत्तरीय बँधा हुआ था । पर इससे उसकी शोभा में लेश-मात्र भ। कमी नहीं आई थी, अधिकन्तु वह संध्या समय की लाल सूर्य-किरणों द्वारा श्राच्छादित नील-कमल की वनस्थली की भाँति अधिक रमणीय हो गई थी । धवल वगा। ज्योत्स्ना एक ओर वृक्ष-वाटिका की घन-चिकन नीलिमा को उज्ज्वलित कर रही थी और दूसरी ओर इस द्वार-रक्षिणी के कान में के दन्तपत्र उसके चिकन कपोल-मण्डल को उद्भासित कर रहे थे। उसके पैरों में लय हुअा धन अलक्तक-रस ( महावर . दूर से ही दिख रहा था और क्षण-भर के लिए मैं सोचने लगा कि क्या तुरन्त ही महिषासुर की छाती पर नृत्य करके कराल कृपाण-धारिणी महादुर्गा तो नहीं आ गई हैं । उसका भीषण- मनोहर रूप मुझे शंकित की अपेक्षा आनन्दित अधिक कर रहा था । फिर भी शंका तो मन में थी ही। मैंने उत्तरीय को सीमन्त के बहुत नीचे सरका लिया और चकित मृगी के अभिनय के साथ निपुणिका के पीछे छिप गया । वस्तुतः वह पिए हुई थी। यद्यपि उसके रूप की मनीहारिता और मलिनता ने मुझे भगवान् त्रिलोचन की नयनामि से भस्मीभूत मदन देवता के धूम से मलिन रति की याद दिला दी थी ; पर उसकी अखिों के लाल कोए और अलस जड़े भ्र-लताएँ बता