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बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाण भट्ट की अात्म-कथा थे । अन्त:पुर की परिचारिकाएँ ही नहीं कुसुम-लताएँ भी क्षीदा बनी हुई थीं। मैंने निपुणिका को बेत पर रहस्य की टिप्पणी करते हुए कहा--सब ब हैं, नि उनिय! नि उनिया ने मह पर अँगुलि रख के इशारा किया-चुप ! और झुककर एक वृद्ध का अभिवादन किया। सा अन्तःपुर की उन्मत्त विलास-लीला के विरुद्ध यह वृद्ध अपनी समस्त आयु का अनुभव लिए' गम्भीर खड़ा था। उसके समस्त इन्द्रिय शिथिल हो गए थे। लम्बे श्वेत कंचुक से उसका सारा शरीर हुँका हुआ था। सिर पर और कान में के समस्त ३ दध के समान शुक्ले हो गए थे। यह कंचुकी था । इसी को देख कर मुझे चुप होने का इशारा किया गया था। वृद्ध को कुछ कहने का अवसर दिए बिना ही निपुणिका बोल उटी--‘गाँव से नई अाई है अञ्ज, कोई रीति- नीति नहीं जानती ! फिर मुझे डाँटते हुए कहा---प्रण मि र सुद- क्षिणा ! आर्य वाभ्रव्य हैं । अन्त:पुरिका के पिता के समान पूज्य हैं । मैंने धरती पर जानुपात करते हुए प्रणाम किया । वाभ्रव्य से सौभाग्यवती होने का आशीर्वाद पावर हम दोनों विराट अट्टालिका में धंस गए। किस नई बहू को प्रमोद-वन में ले जाने के लिए छोटे महाराज ने रत्नहार का पुरस्कार घोषित किया था, वह वही राजव न्या थी, जिसके उद्धार के लिए मैं अन्त:पुर में चोर की भाँति घुसा था । निपुगि का ने फुसफुसाते हुए मेरे कान में कहा-'महावराह निश्चय ही आज प्रसन्न हैं, नहीं तो छोटे महाराज यह घोषणा क्यों करते ?' फिर नाना अलिन्दों और कुहिम-वंथियों से अग्रसर होते हुए हम उस राजकन्या के गृह में गए। उस समय वह सचमुच हा पूजा की वेदी पर बैठी हुई थी । उसकी पूजा में किसी प्रकार का विन्न न हो, इसलिए निपुणका 'तुल०, रत्नावली, प्रथम अंक