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बाण भट्ट की आत्म-कथा

३८ बाण भट्ट की अात्मकथा ने मुझे चुपचाप एक ओर बैठने का इशारा किया और स्वयं भी धीरे से बैठ गई । बैठ कर मैंने एक बार सारे गृह को ध्यान से देवा । गृह के एक प्रान्त में एक नातिदीर्घ शय्या पड़ी हुई थी, जिसके दोनों सिरों पर दो उपधान रखे हुए थे । सारी शय्या दुग्ध-धवल प्रच्छटपट (चादर) से ढेकी हुई थी । शय्या के सिरहाने की ओर कूर्च-स्थान पर महावराह की एक भावपूर्ण मूर्ति पुष्पमाल्य से विभूपित विराज रही थी । महा- वराहु का विशाल दंष्ट्रा अाकाश की अोर इस प्रकार उठा हुआ था, मानो अभी वेगपूर्वक समुद्र से बाहर उठा है, उस पर धरित्री की भीति- चकित मूर्ति बहुत ही मनोहारिणी दिख रही थी । महावराह की अाँखें ठीक प्रस्फुटित पद्म के समान दिख रही थीं और सारा शरीर उत्पल- पत्र के समान घन-चिक्कन नील वर्ण का दिख रहा था । वस्तुतः वह सारी मूर्ति एक ही नील प्रस्तर को काटकर बनाई गई थी । मन ही मन मैंने जीवन्त नीलाचले के समान स्फूणित-वीर्य महाराह का ध्यान मन्त्र-पाठ करते हुए प्रणाम किया । इसी महावराह की मूर्ति के नीचे इस अन्तःपुर की नई बहू और हमारी अशोक-वन की सीता’ ध्यानस्थ बैठी थी। उसकी बगल में एक वेदिका पर माल्य, चन्दन और अनेक प्रकार के उपलेपन रखे हुए थे। एक छोटी-सी स्फटिक पीटिका पर सुगन्धित सिक्थ-करण्डक ( मोमबत्ती की रिटारी । और सौगन्धिक पुटिका ( इत्रदान ) रखी हुई थी । जरा दूर हट के एक कांचन पात्र में मातुलुग का छाल और पान के अन्यान्य उपकरण रखे हुए थे । शुय्या के पादानि की ओर चाँदी का पतद्ग्रह (पीकदान) रखा हुआ था। ऊपर दीवार में हाथीदाँत की खूटियों पर लाल कपड़े तुल , महावराह का ध्यानः-- ततः समुत्क्षिप्य धरा स्वदंष्ट्रय महावराहः स्फुट-पम-लोचनः ।। रसातलादुत्पल-पन्न सन्निभः समुस्थितो नील इवाचलो महान् ॥