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बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाए भट्ट की आत्म-कथा प्रश्न उठता रहा कि इतनी पवित्र रूप-राशि किस प्रकार इस कलुष धरित्री में सम्भव हुई १ निश्चय ही यह धर्म के हृदय से निकली हुई है । मानो विधाता ने शंख से खोद कर, मुक्ता से खींच कर, मृणाल से सँवार कर, चन्द्रकिरणों के कूर्चक से प्रक्षालित कर, सुधा-चुण से धोकर, ग्जत-रस से पोंछ कर, कुटज कुन्द और सिन्धुवार पुष्पों की धवले कान्ति से सजा कर ही उसका निर्माण किया था । अहा, यह कैसी अपुर्व पवित्रता है ! यह हैं क्या मुनियों की ध्यान-सम्पत्ति ही युजी- भूत होकर वर्तमान है, या रावण के स्पर्श-भय से भारी हुई कैलास पर्वत की शोभा ही स्त्री-विग्रह धारण कर के विराज रही है, या बल- राम की दीप्ति ही उनकी मतावस्था में उन्हें छोड़ कर भाग आई है, या मन्दाकिनी की धारा ही यह पवित्र रूप ग्रहण किया है । वह भकि-गद्गद् स्वर में गान करती हुई वीणा बजा रही थी। मैंने ऐसी वीण पहले कभी नहीं सुनी थी । अबाल्य अभिनय देखने में ही काट दिया । हाय, सच्ची भक्ति तो हृमने कभी देखी ही नहीं । शूद्रक के मृच्छकटिक में अभिनय करते समय मैंने एक बार वीणा को अस- मुद्रोत्पन्न रत्न कहा ज़रूर था; पर समझा तो आज ही । उस दिन हमने अपने व यस्यों से विनोद करते हुए शूद्रक के उस श्लोक का उपहास किया था। मुझे उस दिन यह समझ में नहीं आया था कि संकेत स्थान में प्रतीक्षा कर के ढाढ़स बंधाने और अनुरक व्यक्ति का रारा- वर्धन करने के सिवा वह और कौन-सी बात है, जिसे शूद्रक ने उत्क- ठित की वयस्यतो कहा है। उत्कण्ठित तो विरहातुर को ही कहते हैं और उसकी अनुगुणता तो पग-वर्धन में ही समाप्त हो गई । मैंने उस दिन वह रहस्य नहीं समझा था । आज देखता हूँ कि सच्चा उत्क- रिठत क्या होता है। सचमुच छावणा असमुद्रोत्पन्न रत्न हैं। मैं शूद्रक 'तु०, कादबरी में महाश्वेता-दर्शन