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बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाण भट्ट की आत्मकथा की बात का रहस्य समझ रहा हूँ ! धीरे-धीरे वीणा बन्द हुई। प्रमोद-वन की अोर के गवाक्ष से प्रमोद-वन के उत्सव का आभास मिल रहा था। नतंकयों का एक दल चर्चरी ताल के साथ गान करता है। इसी र श्रोता जान पड़ता था। उस सम्मिलित ध्वनि में कैसी-कैसी बुभुक्षा थी, पिपासा थी और मानो भव-प्यास की अभी तृप्त न होने वाली छटपटाहट थी । ईषतु स्पष्ट ध्वनि में दूर से गान सुनाई दिया :--- | इह पढमें महुमासो जस्स हिश्श्राई कुणइ मिदुलाई | पच्चा बिद्धइ कामो लद्धप्पसरेहि कुसम बाणे हि ।। और इसी राग-रुग्ण गाने की पृष्ठभूमि में हमारी ‘अशोक-वन की सीता? ने भांक-कातर वाणी में महावराह की स्तुति की :-- | जलौघमैग्ना सचराचरा धरा बिपाणकोट्याखिलविश्वप्रतिदा । समुद्घता येन वराहरूपिणा स में स्वयं भुभगवान् प्रसीदतु ।। फिर उसने अश्रुपूर्ण नयनों से एक बार महाराई को ग्रार देखा । अत्यन्त धीर पद-संचार से उसने अपने इष्ट देव की परिक्रमा को और शय्या की अोर अग्रसर हुई । शय्या पर बैठने के भी देर बाद तक भी उसकी अखि भक्ति का मादकता से मुक्त नहीं हुई। कुछ देर बाद हम दोनों की ओर उसने देखा । अहा, दृष्टि में इतनी पूतकारिता भी होती हैं ! मानो वह दृष्टि पुण्य-रश्मियों से द्रष्टव्य को उद्भासित कर रही थी, तीर्थ-वारि-धारा से प्लावित कर रही थी, तपस्या से पवित्र निम्नलिखित श्लोक से तात्पर्य होगाः -- उत्कंठितस्य हृदयानुगुणा .वयस्या संकेतके चिरयति प्रबरो विनोदः । संस्थापना प्रियतमा विरहासुराण रक्तस्य रोगपसृिद्धिकरः प्रमोदः ।। मृग्छकटिक, ३-४ तुल०, रत्नावती, प्रथम अंक