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बाण भट्ट की आत्म-कथा

४२ बाए भट्ट की आत्मकथा बना रही और सत्य के अन्तर्निहित ताप से हृदय के अशेष पाप- भावों को भस्म कर रही थी । मुझे ऐसा लगा कि वेदों की पवित्र वाणी धिग्रहवती होकर मुझे आज ब्राह्मणत्व के वरण-योग्य बना रही है। आज मेरी प्रतिज्ञा सफल होगी क्या ? | निपुणिका ने भक्तिपूर्वक प्रणाम किया और मैंने भी उसी का अनुकरण किया। राजकन्या ने नि पुणिका की अोर विश्वास पूर्वक देखा। निपुणिका के लिए वह पार्वती के समान वंदनीया थी और उसके लिए निपुरिएका सखी और वयस्या के समान दुःख-संगिनी । एक बार अपनी बड़ी-बड़ी स्नेह-मेदुर अखिों से मेरी ओर देखा। उस दृष्टि में जिज्ञासा का भाव था । निपुणिका ने आगे जाकर बहुत धीरे-धीरे कुछ कहा। उसने मेरे विषय में कुछ गोपन नहीं रखा; क्योंकि एक क्षण में ही राजकन्या के नयनों में लज्जा का भाव उदय हुआ, उसके धवलायमान कपोलों पर लज्जा की लालिमा दौड़ गई । वह क्षण-भर के लिए कुछ म्लान भी हो गई। उस समय मुझे अपने अनधिकार प्रवेश पर बड़ा क्षोभ हुआ; लेकिन नियुणिका ने क्या जाने क्या कह कर उसे सँभाल लिया । राजकन्या ने व किम नेत्रपात से मेरी ओर देखा और फिर एक बार महावराह की अोर कातर भाव से ताका । उसकी अाँखों से धारा बह चली | स्पष्ट ही उस कातर दृष्टि का अभिप्राय यह था कि हे इष्ट देव, अभी और क्या-क्या दिखाओगे ! निपुणिका किन्तु कान में कुछ कहती ही रही । एक घड़ी तक मैं ग्लान-लज्जित बैठा रहा और वह राजकन्या नाना चिन्ताओं में डूबी पड़ी रही। फिर वह धीरे-धीरे उठी । निपुणिका ने घर के बाहर बैठी हुई चामर- धारिणी को पुकार के कहा-'इजे', अार्य बाभ्रव्य से कह दे कि नई बहू को प्रमोद-वन में चलने को निपुणिका ने राजी कर लिया है । वे आ रही हैं। चामर-वाहिनी को आश्चर्य हुआ । क्षण-भर तक वह इसे परि-