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बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाण भट्ट की अात्म-कथा हास समझे रही । पर निपुणिका ने जब दुबारा कहा, तो वह उल्लास- पूर्वक दौड़ी हुई बाहर निकल गई। ऐसा जान पड़ा कि क्षण-भर में यह संवाद समूचे अन्त:पुर में व्याप्त हो गया। प्रमोद-वन के अन्यान्य बाजे बन्द हो गए, केवल मांगल्य-शंख रह-रह कर बज उठने लगा । अार्य बाभ्रव्य ने व्यस्त भाव से लाकर जयनाद किया-‘भावी महादेवी की जय हो ! निपुणिका ने ज़ोर से दुहराते हुए कहा--‘जय हो !! और वह राजकन्या, निपुति को और मैं धीरे-धीरे राज-भवन से प्रमोद-चैन की ओर चलने को उद्यत हुए। राजकन्या ने एक बार फिर महावराह को भक्तिपूर्वक देखा, उनके चरणों पर अाँखें गड़ और एक खंड वस्त्र उनके चरगु-तल से खींच कर निपुणिका को दिया। निपुगि का ने चुपचाप मेरी ओर उसे सरकाया और कहा- ‘सम्हाल कर रख लो ।' महावराह के उस प्रसाद को मैंने बड़े त से सम्हाला । प्रमोद-वन के प्रवेश-द्वार पर जब हम तीनों पहुँचे, ती राजकुल की परिचारिकाओं की एक मंडली आनन्द-कोलाहल के साथ अाती दिखाई दी। वे बारंबार ‘भावी महादेवी की जय हो !' कह कर उल्लास प्रकट कर रही थीं। उनका वेश अस्त-व्यस्त था और वाणी स्वलित- खंजित | ‘भावी महादेवी' के गम्भीर मुख-मण्डल पर भाव-परिवर्सन का कोई चिह्न नहीं था। वह मेरी ओर एक बार देख कर रुक गई। निपुणिका से जनान्तिक में उसने कुछ कहा; पर इतने ज़ोर से बोली कि मुझे सुनने में कोई बाधा नहीं हुई । वस्तुतः मुझे सुनाना ही उसे अभीष्ट था । बोली--निपुणिका, अन्तःपुर की मर्यादा भंग नहीं होनी चाहिए। कुमारियों और परिचारिका का व्यवहार आज असंयत है । फिर मेरी ओर घूम कर धीरे से बोली---‘भद्र, तुम हमारे अकारण बन्धु हो, बुरा न मानना; अन्तःपुर की एक मर्यादा होती हैं। मैं समझ गया। मैंने हाथ जोड़ कर ग्रीवा झुका कर बिना बोले