पृष्ठ:बाणभट्ट की आत्मकथा.pdf/५८

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चतुर्थ उच्छ्वास निपुगि का ने अपनी स्वामिनी को छिपा रखने के लिए जिस स्थान को चुना था, उसके दर्शन-मात्र से मेरा हृदय बैठ गया। वह एक देवी-मन्दिर से संलग्न छोटा-सा जीर्ण गृह था । जब निपुर्णिका के घर से कुछ अावश्यक सामग्री लेकर चोर की भाँति हम नगर-प्रान्त में अवस्थित उस मन्दिर के पास पहुँचे, उस समय चन्द्रमा पश्चिमाकोश की ओर लटक गया था । सप्तर्षियों का मण्डल मानसरोवर में स्नान करने की तैयारी में था और काल-पुरुष अस्तगिरि के शिखर को छूता दिखाई दे रहा था । चाँदनी उस समय भी दूध के समान श्वेत होकर धरित्री को देंके हुए थी । चण्डी-मन्दिर के बाहर लोहे के मोटे छड़ों का बना हुआ एक विराट कपाट था, जिसके भीतर से चण्डी की मूर्ति स्पष्ट दिखाई दे रही थी । देवी के सामने एक लौह-वेदिक पर कज्जल के समान काला भैसा स्थापित था, जिसके सारे शरीर पर भक्तजनों ने लाल थापे दे रग्ब्रे थे । ऐसा लगता था कि वह साक्षात् यमराज का वाहन है और यमराज ने राक्त हाथों से थप्पड़ मार-मार कर उसे चलाया है। देवी के चरणों के पास एक छोटी वेदी थी, जिस पर कोई लाल-लाल वस्तु दिख रही थी। बाद में मैंने देखा कि वह और कुछ नहीं, एक पीढ़े पर रखा हुआ महावर से रंग। वस्त्र-खण्ड था । मन्दिर के सामने एक खुला हुआ प्रांगण था, जिसके कुट्टिम विदीर्ण हो चुके थे और उन दरारों से हरिद्वर्ण के तृण निकल कर जीवनी शक्ति की। विजय-घोषणा कर रहे थे । इसी प्रांगण से सटा हुआ एक घर था, जो बाहर से गुफा-जैसा दिखाई दे रहा था। घर के सामने कुछ अयत्न परिवर्धित करबीर के झाड़ थे, जिनमें वनकुक्कुटों ने रात को आश्रय