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बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाण भट्ट की आत्म-कथा ग्रहण किया था । निपुर्णिका ने बड़ी सावधानी से उस घर को खोला और जब हम तीनों उस में प्रविष्ट हो गए, तो उसी सावधानी के साथ भीतर से बन्द कर दिया । बन्द कर देने के बाद वह आँगन चारों श्रीर से घिर जाता था । अाँगन में दो-तीन छोटी-छोटी कोठरियाँ थीं और एक जीर्णप्राय कुआ था। इस भग्नप्राय प्रांगण-गृह को ज्योत्स्ना ने और भी भयंकर बना दिया था। आँगन में भीतों पर लाल रंग से चित्रित नाना प्रकार के चिह्न स्पष्ट दिखाई दे रहे थे। जान पड़ता था, किसी समय इस घर में कोई भैरव अपनी भैरवी के साथ बाम- मार्ग साधना किया करते थे; क्योंकि उन चिह्नों का यही अर्थ हो सकता था । निपुणिका ने इस कुसुम-सुकुमार राज कन्या को छिपाने के लिए इस भयंकर स्थान का चुनकर न तो बुद्धिमानी का परिचय दिया था और न सहृदयता का हूं। । लेकिन वह लाचार थी। उसे की श्रेणी की दासी के लिए इससे उत्तम स्थान चुन सकना असम्भव था । उसने केवल एक बार मेरी अोर कातर भाव से देखा । उस दृष्टि का स्पष्ट तात्पर्य यह था कि इससे अधिक मेरे बस की बात न थी ।' यह प्रसन्न नहीं थी। मेरा पौरुष गव परास्त हो चुका था | एक दीर्घ-निःश्वास द्वारा मैंने अपना असन्तोष प्रकट किया ! मेरे प्राण दृफ उठे थे। उस निसर्ग-सुकुमार राजबाला की ओर अाँख उठाकर देख सकने का साहस भी मुझमें नहीं रह गया था। मैं जिस समय अवसन्न होकर बैठ पड़ने जा रहा था, उसी समय राजबाला ने थके हुए स्वर में कहा- ‘भद्र, विलम्ब हो रहा है; करणीय हो, सो करो ।' इस वाक्य ने विद्युत की त्वरा के साथ मेरे समस्त अस्तित्व को झकझोर कर जगा दिया। मेरा जड़-भाव जाता रहा । ऐसा लगा, जैसे किसी अमृत-संजीवनी ने मेरे भीतर नये प्राण भर दिये हैं । विनीत भाव से मैंने कहा-‘देवि, आज इसी स्थान पर विश्राम करें । कल मैं कोई और व्यवस्था करूगा । मुझे इस स्थान पर आपको देखकर बड़ा कष्ट हो रहा है; पर विवश