पृष्ठ:बाणभट्ट की आत्मकथा.pdf/६०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
४८
बाण भट्ट की आत्म-कथा

हूँ ।” उत्तर मिला---'मुझे कोई कष्ट न होगा, करणीय कीजिए। निपुणिका ने एक छोटी कोठरी की और चलने का इशारा किया । उसके वचने रुद्ध हा गए थे, शायद वह रो रही थी। वह कोटरी अपेक्षाकृत साफ़ और मज़बूत थी । वहाँ एके कम्बल पहले से ही विछा हुअा था। हमने राजबाला को अँधेर में वहीं विश्राम करने को कहो । राजबाला के बैठ जाने के बाद हम दोनों अन्याय कायों में जुट गए। | निपुर्णिका कुछ देर तक चुचाप काम करती रही; पर उसकी प्रत्येक क्रिया से एक व्याकुल अाशंका का भाव प्रकट होता रहा। मैंने उससे पूछा कि क्या बात है ? पहले तो वह जबदी-सी खड़ी रही, फिर धीरे-धीरे बोली कि किस प्रकार यहाँ के वृद्ध पुजारी को हाथ कर के उसने यह घर हथियाया है। यद्यपि इस मन्दिर में बहुत कम लोग अाया करते हैं, फिर भी यह स्थान सुरक्षित नहीं है, इस विषय में निपुतिका को कोई सन्देई नहीं था। उसने बताया कि दिन को इस घर का पूर्ण रूप से बन्द रहना ही उचित है । मुझे दिन-भर बाहर रहना होगा और रात को पुजारी के सो जाने के बाद ही निपुणिका से मिलना सम्भव होगा । पर वस्तुतः निपुणिका ने जो बात नहीं कही, वही उसका प्रधान वक्तव्य थी। वह् पुजारी से डरी हुई थी । पहले उसने इस स्थान पर आने के परिणामों को जितना हल्का समझा था, अब उतना हल्का नहीं समझ रही थी । स्त्री-सुलभ भीरुता ने उसे अभिभूत कर दिया था। मैंने साहस बंधाते हुए कहा---‘निउनिया, बाण भट्ट के साथ रह कर भी तू डरती १ वह अाँखें नीची ही किए रही श्रौर स्खलित भाव से “नहीं' कह कर धीरे-धीरे भीतर चली गई । प्रभात होने में अब ज्यादा देर नहीं थः । मैं बाहर निकल आया । निपुणिका ने भीतर से धर बन्द कर लिया। देखते-देखते चन्द्रमा पद्म-मधु से रँगे हुए वृद्ध कलहंस की भाँति