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बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाण भट्ट की अात्म-कथा ५३ मालूम; पर उसने एक बार मेरी ओर अंगुली उठा कर दिखाया । पुजारी मुझे देखते ही अग्नितत हो उठे। निपुणिका ने किवाड़े बन्द कर लिए और पुजारी मेरी ओर दौड़ पड़े। शायद निपुणिका ने मुझे दिखा कर यह बताया था कि इस समय निर्जनता नहीं है और पुजारी का उसके पास आना ठीक नहीं हुआ है । पुजारी ने मुझसे क्या क्या कहा, यह मुझे ठीक नहीं मालूम, क्योंकि उनकी स्खलित वाणी का स्पष्ट सुनना सहज नहीं था; परन्तु वे बातें भले आदमियों के सुनने योग्य नहीं रही होंगी, इस विषय में मुझे लेशमात्र भी सन्देह नहीं । वे क्रोध की मूर्ति बने हुए थे । यद्यपि वे एक पैर से लँगड़े थे; पर दौड़ने में उन्होंने कोई बात उठा नहीं रखी । शीघ्रता के कारण उनके हाथ से कजले चूर्ण का डिब्बा लुढ़क गया और करीब-करीब खाली हो गया । ऐसा जान पड़ा कि मुझे इस स्थान पर बैठने के पाप का प्राय- श्चित अवश्य करना होगा। उन्होंने एक बड़ा-सा प्रस्तर-खएड मेरे ऊपर फेंका । लेकिन वहाँ के प्रस्तर-खण्ड भी पुजारी बाबा का परिहास करना चाहते थे। उनके उत्तरीय में उलझ कर वह पत्थर उनकी पीठ पर आ गिरा। बाबा का क्रोध और भी उफ़न पड़ा। मैं उन्हें शान्त करने का कोई उपाय सोच नहीं पा रहा था; लेकिन पत्थर ने ठीक मौके पर मेरी सहायता की । उत्तरीय के उलझने से उनका वक्षःस्थल खुल गया, शुष्कप्राय औण्डु-पुष्प की माला बाहर निकले आई और काले धागे में बँधी हुई उच्चाटन वाली सीपी दिख गई । मुझे मेरा करणीय सूझ गया । अत्यन्त नम्रतापूर्वक मैंने प्रणिपात किया और हाथ जोड़ कर कहा--'धन्य हो महान् धार्मिक, आश्चर्य है यह उच्चाटन-शुक्ति, अद्भुत है इसकी महिमा ! मुझे नगर श्रेष्ठी धनदत्त ने भेजा है। श्रापकी इस अद्भुत शुक्ति को देख कर उनका मोह टूट गया है। धन-वैभव कमल-पत्र के बुद्बुद् के समान उन्हें निर्विकार छोड़ कर अलग हो गए हैं। संसार से उन्हें वैराग्य हुआ