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बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाण भट्ट की अाम-कथा ५५ कर कहा-“तो क्यों न परम धार्मिक श्रीमान् श्रेष्ठी धनदत्त के महल की ओर चले १ नगर के प्रान्त देश में जो ऊँचा महल है, वही उनका निवास-स्थान है। पुजारी बाबा आज अपनी सफलता के मद में बेहोश थे । बोले-‘नहीं जाता। मैं किसी के महल की ओर । धनदत्त को पड़ेगी, तो सौ बार यहाँ अायगा । तू जा यहाँ से । सौगतों के 'सुगतभद्र के पास जा । वह घर-घर भीख माँगता फिरता है। मैं चण्डी के मन्दिर को छोड़ कर कहीं नहीं जाता । मैंने कहा-“साधु, परम धार्मिक साधु । तपस्या इसे कहते हैं, भक्ति इसका नाम है । भला वह सुगतभद्र कहाँ रहता है ?? पुजारी ने अनति दूर स्थित एक विहार की ओर उपेक्षापूर्वक उँगली उठाई । बोले-वहाँ ! फिर मेरी ओर देखे बिना ही चण्डी-मण्डप की ओर चले गए। मैं क्षण-भर वहीं खड़ी रहा और सोचता रहा कि एक बार उधर का रंग भी क्यों न देख आऊ । वस्तुतः मैं भूल ही गया था कि मुझे धनदत्त के पास पुजारी बाबा की अनुज्ञा ढो ले जाने का काम करना है। पु वारी ने एक बार मेरी ओर देखा । फिर तेज़ी से आकर बोले--‘जा जल्दी यहाँ से । मार डालेगा बेचारे धनदत्त को । तू पाप-भृत्य है। वह अन्न-जल छोड़े बैठा है, तू यहाँ खड़ा है ! सचमुच ही तो मैं कैसा कुभृत्य हूँ ! मैं हाथ जोड़ कर बोला---'हे परम धार्मिक, धनदत्त के महल तक आपका जाना आवश्यक है। वहाँ से वह आपके साथ गा-तट तक जायँगे और गोधूलि के शुभ मुहूर्त में गंगाजल से संकल्प कर के अपनी समस्त सम्पत्ति श्रीचरणों को सौंप देंगे। आप जब तक ऐसी अनुज्ञा नहीं देते, तब तक मैं यहां से नहीं टल सकता । पुजारी नर्म हुए । बोले -'तू बड़ा हठी है। भक्त जो न करी ले । मैं चलता हूँ; मगर तुझे साथ नहीं ले जा सकता। तू यहाँ से भाग जा । शायद धार्मिक को यह सम्देह था कि मैं कुछ हिस्सा लेना चाहता हूँ। मैंने हाथ जोड़ कर कहा---'सो कैसे होगा ? आपने श्रेष्ठी धनदत्त का