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बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाण भट्ट की अस्मि-कथा जी रहा हूँ। दुतल्ले पर उठ कर हम नीचे की ओर अाए और फिर एक पतले अलिन्दमार्ग से होते हुए नीचे के कुट्टिम प्रांगण में उपस्थित हुए। इस आँगन के ठीक केन्द्र में एक अश्वत्थ-वृक्ष था। नये किसलयों से वह लदा हुआ था। उसी की घनी छाया में प्राचार्य बैठे हुए थे । उनके पास दो-एक शिष्य वर्तमान थे । मैं जब वहाँ पहुँचा, उस समय प्राचार्य किसी शिष्य को कुछ समझा रहे थे। उन्होंने मेरा आना लक्ष्य नहीं किया। यह अच्छा ही हुआ, क्योंकि मैंने इस बीच अपने को सम्हाल लिया। प्राचार्यपाद बहुत वृद्ध थे । उनका मस्तक मुण्डित था; परन्तु कानों के गह्वर में दो-चार शुक्ल केश फिर भी दिखाई देते थे और वे बता रहे थे किं वार्धक्य ने प्राचार्य को किस प्रकार प्रभावित किया है। उनकी अखि बहुत स्निग्ध और करुणाद्र' थीं। उनकी वाणी दृढ़ और मधुर थी। उनकी स्थापन-शैली युक्तिपूर्ण और प्रत्य- योत्पादिनी थी । मैं उन्हें थोड़ी देर तक एकटक देखता रहा । तपस्या भी कैसी महिमाशालिनी होती है, क्योंकि इसी तपस्यों ने उनकी आकृति को तप्त कांचन के समाने निर्मल बनाया है। उस कान्ति से एक अद्भुत शान्ति टपक रही है। थोड़ी देर बाद आचार्य ने मेरी ओर देखा--- जैसे हर-जट से सहस्र धार होकर पड़ी निर्मल मन्दाकिनी-धारा अशेष ताप-दग्ध धरित्री को शीतल करने चली हो, उसी प्रकार उनकी आँखों से एक अपार करुणा-स्रोतस्विनी बह गई । ग्रीवा को मेरी ओर फिराने में उन्हें थोड़ा श्रयास करना पड़ा । फिर मुझे देख कर बोले- वत्स, तु जयन्त का कनिष्ठ पौत्र है न १ देखें ज़रा । हो, ठीक जयन्त-जैसा ही दिख रहा है। जयन्त मेरा गुरुभाई था, बेटा ! हम दोनों में बड़ी प्रीति थी । वह अन्त तक मुझे अपना बड़ा भाई ही मानता रहा। मैं जब से तक्षशिला की ओर चला गया, तब से हम • दोनों की देखा-देखी नहीं हुई। ४० वर्ष बाद जब उधर से लौट कर