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बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाण भट्ट की अात्म-कथा नालन्दा गया, तो सब से पहले जयन्त की ही खबर ली । मुझे उस समय मालूम हुआ कि वह इस लोक को छोड़ गया ! उसी समय मैंने सुना था कि तू घर-द्वार छोड़ कर कहाँ-कहाँ भटकता फिरता है। बहुत अच्छा हुआ वत्स, तू मुझसे मिल गया। क्यों बेटा, अभी घर जाने की रुचि नहीं है ? | वृद्ध आचार्य की अाँखें भर आई। मैं अपने को कुछ प्रीत, कुछ ग्लान, कुछ आश्वस्त और कुछ गौरवान्वित अनुभव करता रहा । वृद्ध ने जैसे मुझे स्नेह-रस में डुबो दिया। मैं कुछ कातर भाव से ही बोला-‘देश जाने की रुचि तो है शार्य, पर एक विशेष कार्य में उलझ गया हूँ। आर्यपाद से अपने पितामह का सम्बन्ध जान कर आनन्दित हुश्री हूँ । परन्तु इस समय जिस जंजाल में फंस गया हूँ, वह महान होने पर भी मेरे वंश-गौरव के अनुकूल नहीं है, और आर्य, ऐसे ही विषय में आपकी सहायता प्रार्थना करने आया हूँ, जो आपको केवल कष्ट ही देगा । मैं अभागा हूँ; पर जिस कार्य के विषय में आपकी सहायता मांगने आया हूँ, उसे आप अन्यथा न समझे ।' | श्राचार्य की अखि विकच पुण्डरीक के समान खिल गई। बोले-‘बता बेटा, क्या कार्य है ?? क्षण-भर इधर-उधर देख कर मैंने निवेदन किया-उस बात को कहने के लिए मैं निर्जन प्रदेश चाहता हूँ । आचार्य ने अपने शिष्यों की ओर देखा । वे अशिये समझ कर उठ गए । केवल एक शिष्य थोड़ी देर तक रुका रहा। शायद उसका पाठ समाप्त होना बाकी था। फिर श्राचार्य ने मेरी ओर देख कर कहा--क्षण-भर रुको वत्स, इस अायुष्मान की एक शंका बीच में रुकी हुई है । और फिर उस शिष्य की ओर देख कर बोले-‘हो आयुष्मान्, तू पूछ रहा था कि आर्य असंग ने “शून्यता' शब्द को ही इतना महत्व क्यों दिया ? जो वस्तु है भी नहीं, नहीं भी नहीं, है