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बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाण भट्ट की आत्मकथा और नहीं दोनों भी नहीं और इन दोनों का अभाव भो नहीं, उसे शून्यता क्यों कहा ? यही तेरा प्रश्न है न १ ‘हाँ, आर्य ! । तो आयुष्मान् . तु कोई उचित शब्द चुन सकता है ? शंका की कोई बात नहीं, बोल कोई शब्द ।' ‘हाँ अार्य, निरालम्ब?” या “परम तत्व' जैसे शब्दों के कहने में क्या दोष होता है । | ‘साधु आयुष्मान् , अाज सौगत पण्डितों का एक सम्प्रद्राय “निरालम्ब' शब्द को बहुत महत्त्व देने लगा है; पर इस निषेधात्मक शब्द से तू उस वस्तु का बोध करा सकता है, जो नहीं भी नहीं ? ‘नहीं, अार्य !

  • और “परम तत्त्व' कहने से तत् वस्तु की सत्ता तो माननी

पड़ेगी . फिर उसे “है भी नहीं कह सकता है ? नहीं, अयं ।' साधु श्रायुष्मान् ! तो तेरे दोनों शब्द निरर्थक हुए न ?? ऐसा ही दिखता है, आर्य ! साधु वत्स ! वस्तुस्थिति यह है, आयुष्मान्, कि शून्यता या निरालम्ब या निर्वाण एक अनुभवगम्य वस्तु है । भाषा की कमजोरी हैं कि वह उस पदार्थ को कह नहीं सकती है यह तो केवल प्रज्ञप्ति के लिए एक कामचलाऊ शब्द व्यवहार किया गया है। तू उसके शब्दार्थ पर मत जा। मनन कर। यह गुह्य रहस्य है। केवल पुस्तक पढ़ने से तू इसे नहीं समझ पायगा ।' तो श्राचार्यों ने जो ग्रन्थ लिखे हैं, वे निरर्थक हैं, आर्य ! ‘नहीं आयुष्मान्, आचार्यों ने ज्ञान का दीपक जलाया है। दीपक क्या है, इसकी ओर अगर ध्यान देगा, तो उसके प्रकाश में उद्भासित वस्तुओं को नहीं देख सकेगा। तू दीपक की जांच कर रहा