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बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाण भट्ट की आत्मकथा

  • पास ही हैं, आर्य ! पर आप सारी कथा सुन लें, फिर जैसा उचित

समझे, करें। यह कह कर मैं कल रात से लेकर इस समय तक की सारी कथा कह गया । आचार्य देव के सहज शान्त कोमल मुख-मण्डल पर ज़रा-सी बंकिम रेखा उग श्राई । वे थोड़ी देर तक मेरा मुँह ताकते रहे। फिर बोले-'साधु वत्स, तू जयन्त का उपयुक्त पौत्र हैं । फिर ज़रा भू-कंचिन कर के बोले---‘मौखरि-वंश का कल्याण हो, यह छोटा राजकुल समस्त मौखरि-ौरव पर कालिख पोत देगा। शान्तं पापम् ! शान्त पापम् !! मैं श्राचार्यपाद के मुख की ओर देखता रहा। उस पर कितने ही भाव आए और गए। मन-ही-मन वे किसी से बातें कर रहे थे । बोले कुछ नहीं। थोड़ी देर तक हम दोनों चुप बैठे रहे । फिर उन्होंने एक शिष्य को बुला कर कहा-‘शीघ्र ही कुमार कृष्णवर्धन के पास चले जाश्री । कहना कि प्राचार्य देव अत्यन्त प्रयोजनीय कार्य से यथाशीघ्र मिलना चाहते हैं। | शिष्य के चले जाने के बाद उन्होंने मेरी ओर देख कर कहा- ‘राजदएड कठिन होता है, वत्स ! तूने साहस का काम किया है। मैं तुझसे प्रसन्न हूँ; परन्तु अन्तःपुर में रात को प्रवेश करना धर्मतः निषिद्ध है। यहाँ रहने पर तुझे राजकोप का भाजन होना पड़ेगा। शीघ्र ही तू चन्द्रदीधिति और निपुणिका को लेकर मगध की ओर चला जा । मैं व्यवस्था कर देता हूँ । जा, चन्द्रदीधिति को मेरी ओर से आशीर्वाद कहना । मैं उसके निरापद प्रस्थान की योजना कर रहा हूँ । जब तक कोई व्यवस्था नहीं हो जाती, तब तक उसके देखने की व्याकुलता को मैं दबा रहा हूँ । तू जाकर उसे आश्वस्त कर । मेरी श्रोर से उसे विश्वास दिला देना कि यह कोई भी उसका कुछ बिगाड़ नहीं सकेगा । जा, जल्दी कर । पुजारी से सावधान रहना। वह मूर्ख और नीच है । मैंने भक्तिपूर्वक प्रणाम किया और तेज़ी से चण्डी मण्डप की ओर बढ़ा।