पृष्ठ:बाणभट्ट की आत्मकथा.pdf/७८

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पञ्चम उच्छ्वास विहार से जब मैं बाहर निकला, तो चित्त प्रसन्न था। आती बार मैंने रास्ते की ओर दृष्टि ही नहीं दी थी । चिन्ता में निमम मनुष्य अन्धा होता है । इस समय मैंने लक्ष्य किया, वृक्षों और लताओं पर वसन्त का प्रभाव पूर्ण रूप से व्याप्त हो गया था—विकसित मंजरियों के सौरभ से स्वयं अकृष्ट भ्रमरावली ने श्राम के वृक्षों को छह लिया था, पुष्प-धूलि के केसर-चूर्ण सघन भाव से वषित होकर वनभूमि को पीत बालुकामय पुलिन के रूप में परिणत कर रहे थे। पुष्प-मधु के पान से आमत्त भ्रमरियाँ विह्वल भाव से लता-रूप प्रेखा-दोली पर झूला झूल रही थीं; मत्त कोकिल-लवली के विकसित पल्लवों के अन्तराल में लुकायित होकर पुष्प-मधु निकाल रहे थे और इसलिए उन पेड़ों के नीचे मधु-वृष्टि-सी हो रही थी; किसी-किसी वृक्ष और लता से जीर्ण पुष्प गिर रहे थे और भ्रमर-भार से जर्जरित उनके गर्भ-केसरों से लता- भण्डप मनोरम हो उठे; और नाना भाँति के रंग-बिरंगे पक्षियों से वृक्ष-समूह अतिशय रमणीय दिखाई दे रहे थे । दूर एक विशाल पर्कटी- भृक्ष पद रछ किसलयों से लदा हुआ ऐसा जान पड़ता था, मानो मेरु पर्वत पद्मराग-मणि के आकस्मिक आविर्भाव से लाल हो गया हो । अस्फुटित कांचनार-पुष्पों से नगर-प्रान्त की वनस्थली लहक उठी थी और यत्र-तत्र प्रयत्न परिपुष्ट भाण्डीरक गुल्मों के पुष्प-स्तवक अपनी सुगन्ध और मधुरिमा से पथिक के चित्त को अकारण उत्कण्ठित कर देते थे । कान्यकुब्जों का सब से प्रिय वृक्ष अमि है और इस समय श्राम की मस्ती समस्त कान्यकुञ्ज-साम्राज्य की मस्ती का प्रतीक जान पड़ तीथी ।