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बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाण भट्ट की अत्म-कथा इस भरे फागुन के भीतर मैं इस प्रकार चला जा रहा था, जैसे उड़ रहा होऊ । मेरा उद्देश्य सिद्ध हुआ था। कुछ देर पहले श्राचार्य से मिल कर मेरे हृदय का भार बहुत-कुछ हल्का हो गया था। अब तक भट्टिनी को किसी भद्रतर स्थान में ले जाने की चिन्ता ही प्रबल थी । मैं भूल ही गया था कि उनके आहार और विश्राम की चिन्ता भी करनी है । मुझे याद आया कि कल रात से ही वे और निपुणिका निराहार हैं । मैं भी तथैव हूँ। उस समय तक एक प्रहर दिन चढ़ आया था। एक बार मैंने सोचा कि बाज़ार की ओर से होता चलँ; और कुछ फल- मूल संग्रह कर लू; परन्तु उससे भी अधिक आवश्यक कार्य था भट्टिनी को अश्विस्त करना । इसलिए पहले उनसे मिलकर बाज़ार जाना ही उचित जैचा । चण्डी मन्दिर के पास उस समय कोई नहीं था । मैंने प्रांगण-गृह का द्वार खटखटाया। निपुणिका ने धीरे से दरवाज़ा खोला और जब मैं भीतर चला गया, तो सावधानी से उसे बन्द कर दिया । मेरे मन में इस समय सन्तोष था और प्रच्छन्न रूप से एक गर्व का भाव भी। वर्त्तमान था । मैं न होता, तो इन बिचारियों को कितने कष्टों का सामना करना पड़ता ! यह अच्छा ही हुआ कि मेरा गई उसी समय चूर्ण हो गया । मैंने निपुणिक से पूछा कि भट्टिनी कहाँ है ? निपुणिका ने इशारे से मुझे चुप किया और अगन के कोने की ओर अँगुलि- निर्देश किया । भट्टिनी स्नान कर एक अत्यन्त मामूली वस्त्र धारण करके ध्यानस्थ बैठी थीं । सामने गिली मिट्टी की एक छोटी-सी बेदी थी और उस पर निपुर्णिका के उपास्य महावराह की छोटी मूत्ति विराजमान थी। मामूली वस्त्र की पृष्ठभूमि में उनकी शोभा-सम्पत्ति शतगुण समृद्धिशालिनी दिख रही थी । निश्चल ध्यानमग्न भट्टिनी के सामने अंजलिबद्ध सुकुमार करतलों की अँगुलियों इतनी अभिराम दिख रही थी कि भ्रम होता था कि शिखान्तपर्यन्त प्रफुल्ल मालती से आच्छा- दित तरुण अशोक के कोमल किसलय झलक रहे हैं। ध्यान-स्तिमित