पृष्ठ:बाणभट्ट की आत्मकथा.pdf/८०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
६८
बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाण भट्ट की आत्मकथा नयनों को देख कर जान पड़ता था कि महावराह की अपूर्व शोभा से विस्मय-विमूढ़ होकर दो चपल खंजन-शावक चित्र-लिखित-से स्थिर हो रहे हैं । भट्टिनी के चारों ओर एक अनुभाव-राशि लहरा रही थी। मैं थोड़ी देर तक उस शोभा को देखता रहा । मन-ही-मन मैंने सोचा कि कैसा आश्चर्य है, विधाता का कैसा विरूप विधान है ! कितनी कोमल देह-लता है और कैसी भारी अनुभाव-सम्पत्ति है ! कितना मुदल हृदय और कितनी कठोर तपश्चर्या है ! ऐसे ही रूप को देख कर महाकवि कालिदास के मन में कांचन-पद्म-धर्मी शरीर की धारणा हुई होगी । ठीक ही है---‘ध्वं वपुः कांचन-पद्म-धर्म यत् मृदु प्रकृत्या च संसारमेव च । इस चिन्ता में मैंने ज़रूर कुछ अनुचित विलम्ब किया होगा, क्योंकि निपुणिका ने मुझे धीर से दूसरी ओर इट जाने का संकेत किया । मुझे अपने इस अाचरण पर अकारण पश्चाताप हुआ । पछताने की कोई बात नहीं थी । निपुणिका के साथ मैं दरवाजे के पास आया और धीरे-धीरे उससे विहार में हुई बातों को समझाने लगा । पूरी बात कहने के पहले मैंने थोड़ी भूमिका बाँधने का यत किया । निपुणिका इस समय कुछ प्रसन्न दिख रही थी । स्नान उसने भी कर लिया था और सारी रात की थकान को बहुत कुछ धो चुकी थी। उसकी कोटर-शायिनी अखिों में जागर-खेद अभी भी झलक रहा था; पर कोई दृढ़ विश्वास उस खेद-राग को स्निग्ध कर चुका था। उन अखिों को देख कर मुझे ऐसा लग रहा था कि प्रफुल्ल कांचनार-कुसुम पर चन्द्रमा की धवल प्रभा पड़ी हुई है । निपुणिका की प्रसन्नता देख कर मुझे सन्तोष हुआ। मन में जो गर्व था, वह जरा और ऊपर उठ कर धरातल पर आ गया । अपना महत्त्व प्रतिष्ठित करने के लिए ही मानो मैंने बातचीत शुरू की-“नि उनिया, कल सौभाग्य से मुझसे तेरी मुलाक़ात हो गई । 'हाँ, भट्ट ।