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बाण भट्ट की आत्म-कथा

वीण भट्ट की आत्मकथा ३६. मैं सोचता हूँ कि कहीं तू अकेली ही भट्टिनी को लेकर इधर आई होती, तो कितना कष्ट होता ! सो तो होता ही । इस समय मैं जो-कुछ कर रहा हूँ, उस समय उतना भी तो नहीं हो पाता ! ‘इतना तो हो जाता, भट्ट ! कौन करता भला ? “पुजारी ।

  • पुजारी १ पर तू तो पुजारी से डरी हुई थी, निउनिया !

‘पुजारी-जैसे मूर्ख रसिकों से डरती, तो निउनिया अाज से ६ वर्ष पहले ही मर गई होती, भट्ट ! पर तु प्रत्यूष-काल में डरी हुई जरूर थी। “सो तो थी हो ।' तो तू किससे डरी थी भला १० “तुमसे !

  • मुझसे १

'ह', भट्ट, तुमसे ।। तो मुझसे क्यों डरी थी, निउनिया !

  • क्या बताऊ', भट्ट ! मेरी-जैसी स्त्री तुम्हारे-जैसे पुरुष से क्यों डरती

है, यह बात अगर आज तक तुम्हारी समझ में नहीं आई, तो अब नहीं अायगी । मैं सचमुच हैरान था। निपुणिका को मुझसे डरने की क्या बात थी १ निपुणिक ने ठीक ही कहा था। मैं आज तक उस अज्ञात कारण को ठीक-ठीक नहीं समझ सका। अनुमान से कुछ समझता ज़रूर हूँ; पर अब मुझे अपनी समझ पर भरोसा कम ही है । मैंने आश्चर्य के साथ निपुणिका को देखा और हारे हुए की तरह बोला--