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बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाण भट्ट की आत्मकथा प्रस्तुत कर लिया है । भट्टिनी के लिए थोड़ा दूध और मधु मिल जाता, तो उत्तम होता; परन्तु इस समय देर करोगे, तो अनथ' हो जायगा । • जाओ, जल्दी स्नान कर के आ जाओ । भट्टिनी तुम्हें खिलाए बिना अन्न ग्रहण नहीं करेगी ।।। | मैं जैसे आकाश से गिरा । बोला---'सो क्या निउनिया, भट्टिनी जब तक आहार नहीं कर लेतीं, तब तक मैं कैसे भोजन कर सकता हूँ १ मैं अकिंचन सेवक' | निपुणिका ने इशारा किया कि ज़ोर से न बोलो। फिर धीरे-धीरे बोली-भट्ट, इस छोटी गिरस्ती में तुम्हीं श्रेष्ठ व्यक्ति हो । तुम पुरुष हो, तुम ब्राह्मण हो, तुम पंडित हो, तुम देवता हो। तुम्हें भोजन कराए बिना भट्टिनी अन्न ग्रहण कर सकेंगी भला ! श्री, जल्दी करो। वह तुम्हारी संध्या-पूजा वाली आदत अब भी है न १ देखो, जरा जल्दी करना । उठो ।। मैं हतचेता स्थिर बना बैठा रहा। निउनिया ने फिर कहा-'उठो भी । भद्मिनी को असमय हो जायगा ।। | उठना पड़ा। स्नान और संध्या-आह्लिक करने में मैंने शीघ्रता की । लौट कर जब आया, तो भट्टिनी मेरे आहार का आयोजन कर रही थीं। उनकी आँखें इस समय प्रसन्न दिख रही थीं और शरीर में एक प्रकार का लाघव-भाव स्पष्ट ही लक्षित हो रहा था। वे यकिंचित् आहार्य को बड़ी तन्मयता के साथ सजा रही थीं । निपुणिका ने मुझे बैठने का इशारा किया। मैं लाज से सिकुड़ा हुआ बैठ गया । मेरा सारा अस्तित्व संकुचित होकर गट्ठर-जैसा बनता जा रहा था । भोजन करने की इतनी बड़ी कीमत मैंने कभी नहीं चुकाई थी । भट्टिनी ने अखें नीची किए हुए ही मन्द स्मित के साथ कहा-‘संकोच करते हौं, भट्ट १।। | अब कोई उपाय नहीं रह गया। मैंने सिर झुका कर हाथ जोड़ कर कहा---'देवि, इस अकिंचन को आप अनुचित गौरव दे रही हैं।