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बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाण भट्ट की आत्मकथा आपकी आज्ञा शिरोधार्य है; परन्तु निवेदन करना चाहता हूँ कि भविष्य में इस अकिंचन को ऐसे गौरव का अधिकारी न समझा जाय । भट्टिनी हँसी । उनका आई मुख-मण्डल प्रत्यूष-कालीन वृष्टि से भीगे हुए पुण्डरीक-कोरक के समान एकाएक विकसित हो गया । बोलीं-मुझे इतना अधिकार मिलना चाहिए, भट्ट, कि अपनी बुद्धि से निर्णय कर सकें कि कौन-सा गौरव किसे मिलना चाहिए । निपुणिका ज़रा दूर बैठी थी। हँसती हुई बोली-भोजन को गौरव तो भट्ट को ही मिलना चाहिए।' | निपुणिका की बात पर मुझे भी हँसी आ गई, और इस हँसी ने सारे व्यापार पर से संकोच का पर्दा हटा दिया। पत्ते के पात्र में बहुत मामूली भोज्य-सामग्री मेरे सामने आई; पर उसमें अपूर्व मिठास था। मेरे मन में हर्ष और विषाद का द्वन्द्व चल रहा था। हर्ष अपने पाए हुए गौरव पर और विषाद इस बात पर कि यह मामूली अन्न भट्टिनी के गले कैसे उतरेगा। निपुणिका किन्तु निश्चिन्त थी। मैं जिसे अन्न समझ रहा था, वह उसकी दृष्टि में महावराह का प्रसाद था। उसकी अच्छा या बुरा समझना भक्तिहीन चित्त का विकल्प था । भक्त के लिए तो वह अमृत से श्रेष्ठ था। भट्टिनी ने उस सामान्य अन्न के परिवेषण में असामान्य गरिमा भर दी थी। आज मैं पहली बार समझ सका कि 'प्रसाद' क्या वस्तु होता है। भट्टिनी ने इसी बीच पूछा--'सुरातभद्र वे ही हैं न, भट्ट ।।। | ‘हाँ देवि, वे ही हैं। उन्होंने अपसे मिलने की उत्कण्ठा प्रकट की है और आपको स्नेहपूर्वक आश्वासन भेजा है कि आज ही वे कोई भद्रतर व्यवस्था कर के आपसे मिलेंगे | वे आपको बहुत स्नेह करते हैं।' | भट्टिनी की बड़ी-बड़ी अखें वाष्पाकुल हो उठीं । उन्होंने संक्षेप में उत्तर दिया--'हो, भद्र ।