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बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाण भट्ट की आत्म-कथा . ७५ बार भट्टिनी की आज्ञा ले; पर यह नहीं हो सका, क्योंकि सामनेर के पीछे-पीछे चार-पाँच अच्छे तगड़े तरुण अाए और चण्डी-मण्डप के चारों ओर पृथक्-पृथक् खड़े हो गए । मुझे उनके रंग-ढंग से सन्देह हुआ; परन्तु उनके वेश में कहीं राजपुरुषोचित चिह्न नहीं देख कर सोचा कि ये साधारण नागरिक ही होंगे। मैंने द्वार नहीं खुलवाया। बाहर से सामनेर को उद्देश्य करके ज़रा ज़ोर से ही बोला--- ‘कुमार कृष्णवर्धन का दर्शन करने अभी चल रहा हूँ। मेरा उद्देश्य यह था कि भीतर बात को निपुणिका और भट्टिनी सुन लें और सावधान हो जायँ। फिर मैंने सरोवर में मुह-हाथ धोया उत्तरीय ठीक किया और मन में नाना चिन्ताओं से उलझा हुआ सामनेर के साथ चल पड़ा। सामनेर वाचाल था । उसने थोड़ी देर बाद स्वयं वार्तालाप शुरू कर दिया-‘कुमार बड़े उदार हैं । विद्वानों और गुणियों का सम्माने जानते हैं । यद्यपि तरुण हैं; पर चरित्र के उज्ज्वल और बुद्धि के परिपक्व हैं । आचार्यपाद के भक्त हैं और महाराज परभ भट्टारक श्री देव के अन्तरंगे हैं। कितने विद्वानों का उन्होंने राजकोप से उद्धार किया हैं, कितने गुणियों को विपंजाल से बचाया है, इसकी इयत्ता नहीं है। मैं उसकी बात सुन रहा था पर कोई उत्तर नहीं है रहा था । सामनेर किन्तु उत्साह के साथ कहता ही गया--'कान्यकुब्ज विचित्र देश है, भद्र ! यहाँ ऊपरी अचार को बहुत महत्व दिया जाता हैं और भीतर के तत्व को समझने का प्रयत्न कम किया जाता है। क्या ब्राह्मण और क्या श्रमण, सभी बाह्य श्राचारों को ही बहुमान देते हैं । स्वयं महाराजाधिराज श्री हर्षदेव भी इस बात से अस्पृष्ट नहीं कहे जा सकते । उनका सब से अधिक सम्मान सौगत तार्किक वसुभूति पर है; पर प्राचार्य सुगतभद्र की तुलना में वह कितना छिछला है, इसे बुद्धिमान•मात्र समझ सकते हैं । कुमार कुष्ण कान्यकुब्जों में रहें हैं। खरा और खोटा पहचानते हैं ।