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बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाण भट्ट की आत्म-कथा ७७ सामनेर से मनोरंजक सूचना प्राप्त हो रही थी। मैंने जानने की इच्छा से थोड़ा और उसकाया--'किन्तु महाराजाधिराज को तो यह बात मालूम होनी चाहिए थी । उन्होंने ऐसे मनुष्य को क्यों प्रश्रय दिया है ? ‘कान्यकुब्ज ब्राह्मण-पंडितों की गढ़ी है। ऐसे तर्क कुक्कुरों को ललकार कर ही यहाँ का राजा सौगत बना रह सकता है।' ‘तो यह भी कम आवश्यक नहीं है, ब्रह्मचारिन् ! ‘आचार्यपाद कहते हैं कि इस नीति का फल विपरीत होगा । यदि किसी दिन सद्धर्म को नीचा देखना पड़ा, तो कान्यकुब्ज से ही उस अशुभ दिन का प्रारम्भ होगा । इसी प्रकार की बातें करते-करते हम विहार के द्वार पर उपस्थित हुए । सामनेर मुझे सीधे प्राचार्यपाद वे, गृह की ओर ले गया । आचार्य देव कुशासन पर बैठे हुए थे । शायद वे मेरी प्रतीक्षा कर रहे थे । मुझे देखकर ज़रा स्मित हास्र के साथ बोले-‘अश्रो वत्स, कुमार कृष्ण वर्धन तुमसे मिलने को उत्सुक हैं । उनसे मिलकर तुम आयुष्मती चन्द्रदीधिति के लिए कोई अच्छी व्यवस्था की बात सोचो । कुमार मेरे विश्वासपात्र शिष्य हैं, वत्स ! उनसे कोई पर्दा रखने की अावश्यकता नहीं है । तुम उनसे सारी बातें खोलकर कह सकते हो । थोड़ा-बहुत मैंने भी बता रखा है । फिर उन्होंने सामनेर को बुलाकर आज्ञा दी--पंडित-प्रवर बाण भट्ट को महासन्धिविग्रहिक कुमार कृष्णवर्धन के पास ले जाओ। वे पास के धर्मायतन में पंडित की प्रतीक्षा कर रहे हैं । मैंने प्रणतिपूर्वक विदा ली । सामनेर मुझे एक नाति दीर्घ गृह में ले गया । वहीं कुमार एक तृणास्तरण पर बैठे मेरी प्रतीक्षा कर रहे थे | श्राचार्य की बात से मैंने पहली बार जाना कि कुमार महासन्धि- विग्रहिक के महत्वपूर्ण पद पर अधिष्ठित हैं। मुझे देखते ही वे उठ खड़े हुए और बड़े प्रेम से अपने तृणास्तरण के आधे भाग पर बैठाया।