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बाण भट्ट की आत्म-कथा

उद्धत स्वर में बोले-'क्या कहते हो भट्ट,सोच समझ कर बोलो।' ‘सोच लिया है, कमार ! कुमार के क्रोध-कथित नयनों में थोड़ी और हलचल हुई । बोले--तुम्हें मालूम है, तुम किससे यह बात कह रहे हो ?? ज़रा भी अभिभूत हुए बिना मैंने कहा- 'मैं कान्यकुब्ज-साम्राज्य के महासन्धिविग्रहिक कुमार कृष्णवर्धन से बातें कर रहा हूँ। दुविनीत हो, भद्र ‘कुमार से ऐसी बात सुनने की मुझे अशा नहीं थी । ‘तुम्हें ऐसी बात करते लज्जा मालूम होनी चाहिए। 'लज्जा मुझे क्यों होगी, कुमार ११ ‘तो किसे होगी ? 'उस शक्तिशाली शासक-वंश को, जिसने छोटे राजकुल जैसे अत्याचारियों को प्रश्रय दिया है और अपने को कलंकित कर लिया है ।। | कुमार की भ्र कुटियाँ तन गई–दुविनीत ब्राह्मण-वधु, तुम कल जिस व्यक्ति से भीख माँगने जा रहे थे, उससे बात करने की यही पद्धति है १।। ‘कल मैं राह का भिखारी था, कल मैं स्वाथ्वीश्वर में राज्य करने वाले राजवंश के कलंक से परिचित नहीं था । और आज क्या हो ? ‘अाज मैं विषम समर-विजयी वाहीक-विमर्दन प्रत्यन्त-बाड़व देव- पुत्र तुवर मिलिन्द की प्राणाधिका कन्या का अभिभावक हूँ । अभिभावक । 'हो, अभिभावक । मेरे एक इशारे पर तुम्हारी रक्षणीया देवपुत्र-कन्या को और तुम्हारा क्या हाल हो सकता है, तुम जानते हो ?