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बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाण भई की आत्म-कथा | जानता हूँ; परन्तु कुमार को शायद बाण भट्ट का पूरा परिचय नहीं मालूम। उस इशारे के होने के बहुत पूर्व इशारा करने वाली अखें नहीं रहेगी । | कुमार ने उत्तेजित होकर कहा-‘दुर्विनीत ब्राह्मण-व, भिक्षा- जीवी, दम्भी ! मैंने हँस दिया। कुछ कहा नहीं । कुमार और भी उत्तेजित हो गए। बोले-'अन्तःपुर में चोर की तरह प्रवेश करने वाले अधार्मिक, तुम्हें शर्म नहीं है ! “मुझे स्थाएवीश्वर के लम्पट राजकुल के अन्तःपुर के विषय में श्रद्धा नहीं है। जहाँ चौर्य-लब्ध अत्याचारिता वधुएँ वास करती हैं, उस अन्तःपुर की कोई मर्यादा नहीं होनी चाहिए। ऐसे अन्तःपुरों को प्रश्रय देने वाले शर्म करना चाहे तो करे, उन्हें शोभा दे सकता है। कुमार, साम्राज्य-गर्व में अन्धे न बनो । स्थाणवीश्वर ने राजलक्ष्मी का अपमान किया है । और ब्राह्मण पर तुम्ही कोप व्यथ' है । वई ने भिखारी होता है, ने महासन्धिविग्रहिक । वह धर्म की व्यवस्थापक होता है। मैंने जो कुछ किया है, उससे न मैं लजित हूँ, न मेरा ब्राह्म- तृत्व कलुषित हुआ है। मैं देवपुत्र तुवर मिलिन्द की मर्यादा का पूर्ण . जानकार हैं और निर्भय भाव से फिर कहता हूँ कि स्थाण्वीश्वर के राजवंश ने अपने को पूज्य-पूजन के अयोग्य सिद्ध किया है । देवपुत्र नन्दिनी इस राजवंश को घृणा करती हैं । कुमार कुछ चिन्ता में पड़ गए। उन्हें मेरी बात में कुछ सार मालूम पड़ा होगा। थोड़ी देर के लिए वे भेदक दृष्टि से मुझे देखते रहे। इसी समय कुमार के उत्तेजित स्वर को सुन कर आचार्य- पाद वहाँ आए। उन्हें देख कर हम दोनों उठ खड़े हुए। झगड़ते समय हम दोनों ही भूल गए थे कि वस्तुतः हम आचार्य की आज्ञा पालन करने के लिए निमित्त हुए हैं। प्राचार्य ने आते ही पहले मुझसे कहा-'क्यों बेटा, तूने कुछ अनुचित कह दिया है क्या १ कुमार