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बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाण भट्ट की आत्म-कथा प्रत्यन्त-देश की ओर देखो । यौधेयों ने सौवीर से गान्धार तक अातंक फैला रखा है, सम्राट समुद्रगुप्त की कीचि आज तक चन्द्र-किरणों के समान धवल है । परन्तु रण-दुर्मद यौधेयों का दमन न किया गया, तो सद्धर्म का विनाश अवश्यम्भावी है। इस कार्य में देवपुत्र को तुम्हें मत्र बनाना है । उस मित्रता के लिए तुम्हें आयुष्मती चन्द्रदीधिति का छन्दानुरोध करना पड़ेगा और उसकी विपत्ति के अकारण बन्धु अणि भट्ट की वाणी का उचित सम्मान करना होगा।' कुमार निर्विकार रहे । शान्त भाव से बोले-'तो क्या श्राज्ञा है, अार्य ! आचार्य ने कहा-'अयुष्मती को उस स्थान से हटाना है, भद्रतर स्थान में ले जाना है, स्थण्विीश्वर के कलंक को धोकर उसका विश्वास अर्जन करना है और फिर देवपुत्र को सन्देस भेजना है। वत्स, मैं चण्डी-मण्डप के मूर्ख पुजारी से डरा हुआ हूँ। न-जाने वह कब क्या कर बैठेगा । उसकी कोई व्यवस्था तुमने की है, कुमार ! कुमार यथापूर्व निर्विकार बैठे रहे। केवल भीगे हुए स्वर में बोले-‘नागरिक-वेश में पाँच सशस्त्र सैनिक चण्डी-मण्डप की रखवाली कर रहे हैं । प्राचार्य ने साधुवाद दिया। फिर कुमार की ओर देख कर बोले- क्या सोच रहे हो, बेटा ! तुम्हारा क्रोध क्या अभी शान्त नहीं हुआ ?' | अवसर देखकर मैंने विनीत भाव से कहा---‘कुमार को उत्तेजित करने का अपराध मैंने किया है, आर्य ! उसका दण्ड भी मुझे मिलना चाहिए । परन्तु मेरे औद्धत्य से देवपुत्र-नन्दिनी का कोई अनिष्ट नहीं होना चाहिए ।। | कुमार ने मेरी ओर देख कर कहा–'मैं तुम्हारे साहस का प्रशंसक हैं, भट्ट ! मैंने अाज से पहले तुम्हारे-जैसे ब्राह्मण को क्यों नहीं देखा,