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बाण भट्ट की आत्म-कथा

८४ बाण भट्ट की श्रात्म-कथा सामने जाने में लजा हो रही है । भद्र, तुमने ठीक ही कहा है कि स्थाएवीश्वर के राजवंश ने अपने को पूज्य-पूजन के अयोग्य सिद्ध किया है। पर यह सब अनजान में हुआ है, भद्र ! अनुकूल अवसर पर देवपुत्र-नन्दिनी को यह समझा देना कि उनकी इच्छा से पूज्य- पूजन का यह अवसर भी उस राजवंश के हाथ से निकल गया । यद्यपि साहस नहीं होता; पर मेरी ओर मे तुम उन्हें शिविका पर गंगा- तीर तक जाने को प्रस्तुत करना देवपुत्र-नन्दिनी का जिन लोगों ने अपमान किया है, उन्होंने समस्त स्थण्विीश्वर की राजलक्ष्मी को पैरों से ठुकराया है। उसका हिसाब उन्हें देना होगा; परन्तु हम किसी भी कार्य में तरल-कर्मा होने को नीति-विरुद्ध मानते हैं । देलो भट्ट, तुमने देवपुत्र-नन्दिनी का विश्वास प्राप्त करने का सौभाग्य पाया है, इसी- लिए यह भी आवश्यक है कि तुम तत्र भवती को ठीक-ठीक समझा कि आज ही जो उन अपराधियों के अपराध का दएड नहीं मिलता, सो राजनीति की जटिलता के कारण हुश्रा है। कुमार कृष्णवर्धन प्रतिज्ञा करता है कि अनीति का ३च्छेद करके ही वह दम लेगा । देवपुत्र-नन्दिनी के अपमान को वह अपनी बहन का ही अपमान समझता है अाचार्य ने करुणाद्र श्रखिों से एक बार कुमार की ओर देखा। उन्होंने फिर उत्साह दिया-‘साधु वत्स, साधु ! स्था- एवीश्वर के प्रतापी राजवंश के उपयुक्त वचन है ।' कुमार ने कहा--- 'किन्तु आर्य, मेरे हृदय में जो कण्टक चुभा है, वह जहाँ का तह है। वपुत्र-नन्दिनी की किसी इच्छा में बाधक बनना मेरी इच्छा के बाहर है। कुमार कृष्ण ने आज तक इतनी अधिक लज्जा कभी नहीं पाई । आज उस शीर्ण देवायतन के प्रांगण-गृह में कुसुम सुकुमार राजकुमारी ने रूक्ष और कदन्नपर यो शायद निरन्न रहकर जो समय व्यतीत किया, उसकी बात याद आती है, तो मेरा सम्पूर्ण, क्षत्रियत्व उबल पड़ता है। मैंने बहुत प्रयत्नपूर्वक अपने को दबाया है। मुझे तुःख है कि मैं इस विषय