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बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाण भट्ट की अरम-कथा और इस अंगारमय वातावरण में विहार के बीचवाला अश्वत्थ झापाद ताम्र किसलयों से लदा हुआ ऐसा जान पड़ता था कि धरती के भीतर से कोई ज्वलन्त श्राग्नेय-गिरि ज्वालमाला के रूप में धरती के अन्तः स्थित प्रचण्ड उष्णता को उगल रहा है। परन्तु वह क्या उष्णता थी १ नहीं, अश्वत्थ की किसलय-सम्पत्ति को उष्णता समझना केवल विकृत चिन्तन का परिणाम था । वास्तव में धरती के हृदय की रस- राशि थी, जो प्रचण्ड ताप के भीतर भी अपनी शीतलता की घोषणा कर रही थी । कुमार कृष्णवर्धन के हृदयस्थित शीतल प्रेम-धारा को भी मैंने जो उष्णता समझ लिया थी, यह मेरे विकृत चिन्तन का ही परिणाम था । मैंने अपने पारस्थित कुमार को एक बार क्षमा-याचना की दृष्टि से देखा । कुमार का मुख-मण्डल शान्त था। उससे एक स्निग्ध प्रभा निकल रही थी, जो दर्शक को अभय देत जान पड़ती थी । मेरी दृष्टि का अर्थ कुमार ने पहचाना । ज्ञरा स्मित के साथ कहा--‘देवपुत्र की मर्यादा के उचित जानकार हो, भट्ट ! मैं तुमसे प्रसन्न हूँ ।। मैंने हाथ जोड़ कर कहा-‘कुमार का प्रसाद मौन विनय के साथ ग्रहण किया । | सहृदय कुमार समझ सके कि कृतज्ञता के श्रातिशय्य ने मेरे वचन रुद्ध कर दिए थे । वे प्रसन्न हो गए।