पृष्ठ:बाहर भीतर.djvu/१०३

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बर्मा रोड "यह मैं समझ गया सर।" सफदर चला गया। और ठीक आठवें दिन बहुत-से फल-फूल लाकर उसने जनरल के पैरो मे रख दिए । फिर उसने फौजी सलाम किया और अदब से खड़ा हो गया। साहब ने कहा-कर्नल, तुम्हारा सब बाल-बच्चा खुश है ? "हुजूर की बदौलत, सर।" "अच्छा, तो मेरा काम याद रहा?" "सरदार हाजिर है सर।" "कहा? उन्हे अभी लाओ।" सफदर ने डाकू सरदार जगबहादुर को उपस्थित किया। ठिगना कद, छोटी- छोटी तेज आंखें, मोटी गर्दन, खिचड़ी बाल, कठोर रेखाओं से भरपूर चेहरा, सशकित दृष्टि, सावधान चाल। चुपचाप जगबहादुर साहब के सामने आ खडा हुआ। साहब ने खडे होकर हाथ मिलाया और कुर्सी की ओर बैठने का सकेत किया। "आपने सफदर की जान बख्श दी है साहब, कहिए मै आपकी क्या खिदमत बजा लाऊ?" "मगर मैने तो आपको एक खुशखबरी देने बुलाया है सरदार ।" "साहब, आपने मेरे सफदर को फासी के तख्ते से उतारकर मेरी गोद मे डाल दिया। यह मेरा बहादुर बेटा है । इतना ही नही, उसे एक इज्जतदार बना दिया, यह खुशखबरी क्या कम है ?" "उस बात को छोडिए सरदार । गवर्नमेट ने आपके खिलाफ जितने मुकदमात थे, सब उठा लिए है, आपको राजा बहादुर का खिताब दिया है, और आपको यह सब पहाड़ी इलाका जागीर मे बख्श दिया है। यह आपकी सनद है, राजा बहादुर।" डाकू सरदार पागल की भाति जनरल का मुह ताकने लगा। उसने कहा- आप कौन हैं साहब, और ये इतने बड़े-बड़े अहसान बिना जाने-बूझे किसलिए कर रहे हैं ? "मैं एक सिपाही हूं राजा बहादुर, और बहादुरी का कद्रदान हू । जिस देश के बहादुरो को अपने खून की गर्मी दिखाने के मौके नहीं मिलते, वे इसी तरह डाकू बनकर जंगलों मे मुंह छिपाते फिरते हैं या फांसी पाते है। मगर मै एक ऐसा .