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कहानीकार का वक्तव्य
 
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अन्तर्वेग के ही कारण। इनमें मैंने परिश्रम कुछ ऐसा नहीं किया। मुगल-चरित्र पर मेरी कलम अपने-आप ही रपट पड़ी। राजतूतो का वर्णन करते-करते मैं उधर झाकने लगा था। वास्तव में यह एक प्रतिक्रिया ही कहना चाहिए। परन्तु मेरा उद्देश्य इसी समय प्रचार-भावना से हट गया। मानव-मन के अन्तर्द्वन्द्व के रेखाचित्रो पर मेरा ध्यान गया। यही कारण मेरे साहित्यिक जीवन मे आने का हुआ। सन् १९१७ में मैंने अपनी प्रसिद्ध मुगलकालीन कहानी 'दुखवा मैं कासे कहू' लिखी। इसके बाद 'दे खुदा की राह पर', 'सोया हुआ शहर', 'लालारुख', 'नवाब कुदसिया बेगम', 'बाचिन' आदि कहानियां जो मैंने लिखीं, उनमें मैंने शुद्ध सात्विक भावदर्शन और चरित्र-चित्रण के साथ मानव-मन के अन्तर्द्वन्द्व का प्रदर्शन किया। मुस्लिम संस्कृति के प्रति क्षोभ का कुछ भी अंश उसमें न रहा।

इस समय तक भी मेरे रक्त में आर्यसमाजी प्रचारवाद था, इसलिए सामाजिक प्रश्नों पर जहां व्यंग्य दरकार होता, मैं कहानी लिख डालता। मेरी कहानी के पीछे कला न होती। रूढ़िवाद के विपरीत क्रोध और बेहद असन्तोष होता। इससे मोटी कलम, आप ही आग उमलने लगी। उसके लिए मुझे जरा भी प्रयास नही करना पड़ा और लोगो ने मुझे अनायास ही 'लौह लेखनी का धनी' की उपाधि दे डाली। याद आता है, इस नाम से सबसे प्रथम मुझे श्री सहगल ने पुकारा। उन दिनों राजपूती ओज पर छोटे-छोटे गद्य-काव्य मैं 'प्रताप' में लिखता था। पता नहीं-कहासे वे हीरे, मोती, जवाहर पाताल फोड़कर निकल आते थे। उनमे ऐसी ज्वाला और तड़प होती थी कि उधर मेरी कलम का प्रवाह चलता रहता था, इधर आखों में सावन-भादों की झड़ी लगी रहती थी। यह गन्दी जनानी आदत अभी तक मुझमे है। इसलिए तभी से मेरी यह आदत पड़ गई है कि मैं कहानियां किसीके सामने दिन में नहीं लिखता। या तो बन्द कमरे में लिखता हूं या रात को दो बजे; जब अपनी दुर्दशा का अकेला मैं ही दर्शक होता हूं।

इतिहास मे अभिरुचि मेरी प्रथम ही से थी ।अब ज्यों-ज्यों मेरा अध्ययन गम्भीर होता गया-मैं भारत की प्राचीन संस्कृति का पुजारी होता गया। इसी समय बौद्ध ग्रन्थों में मुझे अम्बपाली की एक छोटी-सी चर्चा मिली, जब बुद्ध उसकी बाड़ी में ठहरे थे । और मैंने बौद्ध जीवन पर पहली कहानी 'अम्बपाली' लिखी, जो 'चांद' में शायद सन् १९२४-२५ में छपी। इसके बाद अम्बपाली पर