पृष्ठ:बाहर भीतर.djvu/१२४

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१२६ रूठी रानी "सो तो ठीक है, पर जब बेटी जनमी है, तो किसीको दामाद तो बनाना ही पडेगा।" "पड़ेगा तो, सोच रहा हू । हा, मारवाड़ के राव मालदेव ने भी पत्र भेजा है।" "मालदेव ने क्या लिखा है "लिखा है, आपका हमारा सम्बन्ध ठेठ से चला आता है, कुछ नई बात नही ?" "तो हानि क्या है ! घर-वर दोनो अच्छे हैं।" "खाक अच्छे है, मेरा सारा देश लूट-पाट कर उजाड़ दिया, अब बेटी मांगता "बेटी तो देनी ही है, मालदेव ही को दो, जिससे दुश्मनी तो मिटे।" (स्वगत) 'बात तो सच है, घर बैठे शिकार फसाने का अवसर है, चूकना न चाहिए।' "क्या सोचने लगे?" "कुछ नही, मैं सोचता हू कि तुम्हारी बात ठीक है, राव मालदेव से कह देना चाहिए।" "तो आज ही सोने-चांदी के नारियल का टीका भेज दीजिए।" "मैं अभी पुरोहित को बुलाता हूं, सब प्रबंध हो जाएगा।" "क्या बारात द्वार पर आ गई? तोरण बधाने की तैयारी करिए महाराज।" "करता हू रानी, तनिक झरोखे से दूल्हे को तो देखो, यही है वह जिसके डर से मुझे रात को नीद नही आती । अब यह मेरे द्वार पर तोरण बाधेगा । अहा हा ! मेरे उसी द्वार परतोरण बाधेगा जो बहुधा उसीके भय से बन्द रहता है, पर देखती रहो, मैं भी क्या करता हू। जो चौरी मे से जीता निकल गया, तो मैं रावल नही । बेटी तो विधवा होगी, पर दिल का काटा निकल जाएगा, राजपूताने भर को चैन से सोना मिलेगा।" "हाय-हाय ! यह क्या सोच रहे हो! क्या जमाई से दगा करनी विचारी है ?" "चुप रहो रानी, रोओ-चीखो मत। रोओगी तो बात फूट जाएगी, फिर यह भेड़िया हम सबको खा जाएगा। देखती नही हो, ब्याहने आया है पर कितनी फौज साथ लाया है । यह तो एक दिन मे ही घड़सीसर का सब पानी पी जाएगी, हम -