पृष्ठ:बाहर भीतर.djvu/१३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

कहानीकार का वक्तव्य १३ से मैं शक्ति-भर सावधान रहकर ही कलम चलाता हूं। अब यद्यपि मैंने अपनी शैली बदल दी है और लिखने से प्रथम मैं .अध्ययन करने लगा हूं;तब लिखने से प्रथम मैं अध्ययन बन्द कर देता था। मुझे भय रहता था कि कही दूसरो की भावना मेरी लेखनी में न आ जाए । मेरी इस आदत के कारण ही कहानी लिखना मेरे लिए दुरूह हो उठा। क्योंकि अपने मष्तिक की कहानी लिखने के लिए चरित्र, जीवन, स्वभाव, मानसिक पात-प्रतिघात के कोमल दाव-पेच और भाव-विभावों का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण करना पड़ता था। मुझे स्वीकार करना चाहिए कि मेरे वैद्यक पेशे ने भी मुझे इस काम में बहुत मदद की। इस पेशे के कारण सर्वसाधारण के गोपनीय और रहस्यपूर्ण चरित्र तो मेरे सामने आते ही थे, राजा-महाराजाओं और करोड़पति सेठों के घरों के बड़े-बड़े छिद्र भी मुझे मालूम होने लगे। बम्बई जैसी महानगरी। वहा मैं रहता था श्रीमन्तों के शीर्षस्थल पर । मकान का किराया ही पौने चार सौ रुपया मासिक देता था। यह आज की बात नही; चालीस वर्ष पुरानी बात है। सौ नित नये शिगूफे मेरे सामने खुलते थे। एक तरुणी रानी साहेबा ने तो मुझे अपनी कोठी पर बुलाकर कमरे में बन्द कर दिया और कहा, “छुट्टी तब मिलेगी, जब मेरी सौत को अधी या पागल कर दोगे।" एक श्रीमन्त करोड़पति ने पचीस हजार की गड्डी मेरी आंखों के सामने रख दी थी इसलिए कि मैं उनकी सौतेली मां को विष दे दू, जिसकी चिकित्सा बड़े ही यत्न से उन्होंने मेरे सुपुर्द की थी। एक छत्रपति राजा ने तो अपनी पत्नी और पुत्र को ही साफ कराना चाहा था, जिससे वे अपनी उपपत्नी के पुत्र को वैध उत्तराधिकारी बना सकें। एक राजा साहब ने अपने छोटे पुत्र को, जो दूसरी रिया- सत पर गोद गया था, उस रियासत का झटपट स्वामी बनाने के लिए-गोद लेने- वाले रुग्ण राजा और उसकी पत्नी को ही साफ कराना चाहा था और इन कामों के लिए कितनी भारी-भारी रकमें पेश की गई थी; आप इसकी कल्पना भी नहीं कर सकते। उस वक्त बुद्धि ने साथ नहीं दिया, नही तो आज के दिन न देखने पड़ते- जब लेखों के पारिश्रमिक की प्रतीक्षा करनी पड़ती है। लाखो की सम्पत्ति हो चुकी होती। परन्तु मुझे तो ऐसा कोई शिगूफा मिलते ही रुषया झांसने की नहीं, उसपर एक कहानी लिख मारने की तलाबेली उठ खड़ी होती थी। यह कहना