पृष्ठ:बाहर भीतर.djvu/१३३

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रूठी रानी १३५ से गुस्से मे भरे थे। झट जनाने से बाहर निकल आए। आंखो मे नशा, दिल में क्रोध और हाथ मे खाड़ा था। "डयोढियो पर कौन हाजिर है ? ?" "घणी खम्मा अन्नदाता, पृथ्वीनाथ पधारो, शुभचिन्तक हाजिर है।" "अच्छा, आप हैं ईश्वरदासजी ! अभी आप जगते हैं ! अच्छा, कोई कहानी तो कहिए।" "जो आज्ञा, विराजिए। सुनिए पृथ्वीनाथ : मारवाड़ नर नोपजे, नारी जैसलमेर। तुमरी तो सिन्ध सांतरां, करहल बीकानेर । "बस, वारहटजी, आपका यह दोहा तो बिल्कुल ही गलत है।" "कैसे पृथ्वीनाथ ?" "जैसलमेर की नारी की प्रशसा आप करते हैं, पर हमे तो वहां की स्त्रियो से कुछ कहना नहीं है।" "क्यो अन्नदाता, यह क्या आज्ञा करते है ? जैसलमेर की अच्छी से अच्छी स्त्री उमादे "अजी वह तो फेरो की रात से ही रूठी बैठी है।" "धन्य महाराज, चलिए अभी मेल करा दू।" "वारहटजी, आप चलते तो हैं, पर वह बोलेनी भी नहीं।" "महाराज, मैं चारण हू, चारण मरे को बुला सकता है, वह तो जीती है।" "देखें फिर आपकी करामात।" "मैं ईश्वरदास वारहट, बाईजी राज से कुछ कहने रावजी के पास से आया "बाईजी परदे के पास बैठी हैं, आप कहिए क्या कहते है ?" "बाईजी मुजरा, घणी खम्मा।" "बाईजी राज से मेरा मुजरा।" रावजी ने धीरे से कहा-मैं कहता न था कि यह न बोलेगी, मुरदा बोले, पर यह न बोले।