पृष्ठ:बाहर भीतर.djvu/१३५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

रूठी रानो उमा उठकर चली गई, रावजी भी चले गए। पर वारहटजी बैठे रहे। 51 "वारहटजी, भोजन कीजिए।" "मैं भोजन नही करूगा।" "किसलिए?" "मुझे बाईजी का बडा भरोसा था, पर उन्होने मेरा तनिक भी लिहाज नहीं किया। मैं तो इसीसे रावजी को साथ लाया था। अब तो मुझे यही मरना है । क्या कभी बाईजी ने चारणो की चादी करने की बात नहीं सुनी?" (रानी आती है।) "आप भोजन क्यो नही करते ?" "चारण यदि किसी झगड़े मे पड़ते हैं और राजपूत उनकी बात नही मानते तो चारण को चादी करके प्राण त्यागना पडता है।" "तो आप क्या मुझपर चांदी करेगे? "अवश्य करूगा, नही तो रावजा को क्या मुह दिखाऊंगा?" "तो आपने मुझे वचन क्यो नही दिया?" "राजा-रानी के बीच वचन कौन दे ? बीच वाले का काम मेल करा देना है. सो मै रावजी को ले ही आया था।" "उन्हे लाने से क्या हुआ ?" "मेरे प्राणों पर बन आई।" "आप भोजन तो करें।" "दूसरे जन्म मे करूगा।" भारेली ने आगे बढकर कहा : "वारहटजी, बाईजी ने भी अभी भोजन नहीं किया है।" "वे भोजन करे, उन्हे कौन रोकता है ?" "भला ऐसा कहीं हुआ है, चारण ड्योढ़ी पर भूखा बैठा हो, और राजपूत-जाई भोजन करे ?" "तो बाईजी चारणों का जब इतना आदर करती हैं, तो उनकी बात क्यों नहीं मानती?" "आप क्या कहते हैं ?"