पृष्ठ:बाहर भीतर.djvu/१३६

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१३८ रूठी रानी "यही कि रावजी से मेल कर ले।" "रावजी भी कुछ करेगे या नही ?" "आप जो कहेगी वही करेगे, कहिए हाथ जोडें, कहिए पाव पडे !" "बाबाजी, यह आप क्या कहते है ? वे मेरे स्वामी और मै उनकी दासी हू। मैं तो रूठने मे भी उनसे सब भाति प्रसन्न हूं, वे भी मेरा पूरा मान करते है, इसीसे जीती हू।" "धन्य बाई, धन्य, अब कहो क्या कहती हो?" "आप क्या चाहते है "रूठना छोड दो।" "मेरा तो जी नही चाहता, पर खैर लाचार है।" "रावजी वही करेगे जो तुम कहोगी।" "मुझे कुछ कहना नही है, हा, कोई बात स्वभाव-विरुद्ध न हो।" "तो रावजी को लाऊ या सुखपाल और अर्दली मगाऊ ?" "अभी नही, रात को चलूगी, आप भोजन करे।" "पहले मै रावजी से मिल आऊं।" ?" . रावजी की बाछे खिली थी, आज बहुत दिन की रूठी रानी मिलेगी। राज- भवन सज रहा था। डाडनें, पातले इकट्ठी हो रही थीं। शराब के पात्र भरे धरे थे। मर्वत्र रोशनी हो रही थी। गायन प्रारम्भ हुआ। शराब का दौर चला। उमादे को बुलाने बांदी पर बादी आ रही थी। अभी उसका शृगार ही नही निबटा था। माग में मोती भरे जा रहे थे, मन मचल रहा था। बांदी ने कहा : "पधारिए महारानी, अन्नदाता ताकीद कर रहे है।" "आते-आते आएगे, जल्दी क्या है ? जा भारेली, तू कह दे।" "बाईजी राज, मुझे न भेजिए, अन्धेर हो जाएगा।" "तू ही जा और लौटकर मेरे साथ चल।" & "वाह भारेली, आज तो तुम्हारे खूब ठाठ है । पियो एक प्याला।" "अन्नदाता क्षमा करें, बाईजी पधार रही है।" "आने दो फिर, उन्होने तुझे मेरा मन बहलाने को ही भेजा है।"