पृष्ठ:बाहर भीतर.djvu/१३७

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रूठी रानी १३६ "महाराज, अनर्थ हो जाएगा, मुझे जाने दे।" "बैठ जा, आने दे उन्हे।" "महाराज, आप गज़ब कर रहे है।" "उस दिन की तरह आज भी एक प्याला दो।" भारेली ने मद्य से प्याला भरकर दिया ही था कि उमा ने आकर देख लिया। वह उल्टे पाव लौट गई। भारेली ने उसे देखकर कहा "महाराज, अनर्थ हो गया !" और वह खिडकी से कूदकर बाहर चली गई। "वाह, दोनो तोते उड़ गए ! वारहटजी को बुलाओ।" "अब क्या करूं?" वारहटजी ने सब कुछ सुनकर कहा-अन्नदाता, आपने अनर्थ किया। "एक बार फिर मनाकर देखिए।" "जाता है, पर कठिन है।" . "कहिए वारहटजी, आपके तो होश उड़े हैं, खैर तो है ?" "पृथ्वीनाथ, राजभवन सूना पड़ा है, रानी बुर्ज मे जा बैठी है, सखियो ने सफेद चादनी तानकर परदा कर दिया है। लौंडिया पहरे पर है । उर्दू बेगमे नगी तलवार लिए खडी है, मेरा निकट जाने का साहस नही हुआ।" "क्या भट्टानी बुर्ज मे जा बैठी? यह क्या किया?" "महाराज, बुर्ज का भाग्य खुल गया, आज उसपर सती का वह तेज बरस रहा है, जो पृथ्वीराज के सिंहासन पर भी न बरसा होगा। चांदनी का परदा पड़ा है, नगी तलवारो का पहरा है !" "तब तो उसे मनाना कठिन है।" "बहुत कठिन, आपने बहुत अन्धेर किया।" "अब क्या हो, मै पछताता हू " "अभी तो बाईजी दो-चार दिन महल मे आती दीखती नहीं; क्या प्रबन्ध किया जाए ?" "मैं तो कल ही बीकानेर पर चढ़ाई करूगा, आप वहा बुर्न के पास कनातें