पृष्ठ:बाहर भीतर.djvu/१४३

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जैसलमेर की राजकुमारी १४५ विशालकाय सैन्य अजगर की भाति किले के फाटक से निकलकर पर्वत की उपत्यका मे विलीन हो गया। इसके बाद घोर चीत्कार करके दुर्ग का फाटक बन्द हो गया। टिड्डीदल की भाति शत्रु ने दुर्ग घेर रखा था। सब प्रकार की रसद बाहर से आनी बन्द थी। प्रतिदिन यवनदल गोली और तीरों की वर्षा करते थे, पर जैसल- मेर का अजेय दुर्ग गर्व से मस्तक उठाए खड़ा था। यवन समझ गए थे कि दुर्ग-विजय करना हसी-ठट्ठा नहीं है । दुर्ग-रक्षिणी राजनन्दिनी रत्नवती निर्भय अपने दुर्ग मे सुरक्षित बैठी शत्रुओ के दात खट्टे कर रही थी। उसकी अधीनता मे पुराने विश्वस्त राजपूत वीर थे जो मृत्यु और जीवन को खेल समझते थे। वह अपनी सखियो समेत दुर्ग के किसी बुर्ज पर चढ जाती और यवन सेना का ठट्ठा उडाती हुई वहा से सन- सनाते तीरो की वर्षा करती। वह कहती-मैं स्त्री हू, पर अबला नही। मुझमे मर्दो जैसा साहस और हिम्मत है । मेरी सहेलिया भी देखने-भर की स्त्रिया है । मैं इन पापिष्ठ यवनो को समझती क्या है ? उसकी बाते सुन सहेलिया ठठाकर हस देती हैं। प्रबल यवनदल द्वारा आक्रांत दुर्ग मे बैठना राजकुमारी के लिए एक विनोद था। मलिक काफूर एक गुलाम था, जो यवन-सेना का अधिपति था। वह दृढ़ता और शान्ति से राजकुमारी की चोटे सह रहा था। उसने सोचा था कि जब किले मे खाद्यपदार्थ कम हो जाएगे, दुर्ग वश में आ जाएगा। फिर भी वह समय-समय पर दुर्ग पर आक्रमण कर देता था, परन्तु दुर्ग की चट्टानो और भारी दीवारो को कोई क्षति नही पहुचती थी। राजकुमारी बहुधा बुर्ज पर से कहती-ये धूर्त गर्द उडाकर और गोली बरसाकर मेरे किले को गन्दा कर रहे है। इससे क्या लाभ होगा? यवनदल ने एक बार दुर्ग पर प्रबल आक्रमण किया। राजकुमारी चुपचाप बैठी रही। जब शत्रु आधी दूर तक दीवारो पर चढ़ आए तब भारी पत्थरो के ढोके और गर्म तेल की वह मार पड़ी कि शत्रु-सेना छिन्न-भिन्न हो गई। लोगो के मुह झुलस गए। किसानो की चटनी बन गई। हजारों तौबा-तौबा करके प्राण लेकर भागे। जोप्राचीर तक पहुचे, उन्हे तलवार के घाट उतार दिया गया।