पृष्ठ:बाहर भीतर.djvu/१४४

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१४६ जैसलमेर की राजकुमारी सूर्य छिप रहा था। प्राची दिशा लाल-लाल हो रही थी। राजकुमारी कुछ चिन्तित भाव से सुदूर पर्वत की उपत्यका में डूबते हुए सूर्य को देख रही थी। उसे चार दिन से पिता का सन्देश नही मिला था । वह सोच रही थी कि इस समय पिता को क्या सहायता दी जा सकती है। वह एक बुर्ज के नीचे बैठ गई। धीरे-धीरे अध- कार बढने लगा। उसने देखा, एक काली मूर्ति धीरे-धीरे पर्वत की तग राह से किले की ओर अग्रसर हो रही है। उसने समझा, पिता का सन्देशवाहक होगा। वह चुपचाप उत्सुक होकर उधर ही देखती रही । उसे आश्चर्य तब हुआ जब उसने देखा, वह गुप्त द्वार की ओर न जाकर सिंह-द्वार की ओर जा रहा है। तब अवश्य वह शत्रु है । राजकुमारी ने एक तीखा बाण हाथ मे लिया और छिपती हुई उस मूर्ति के साथ ही द्वार की पौर के ऊपर आ गई। वह मूर्ति एक गठरी को पीठ से उतारकर प्राचीर पर चढने का उपाय सोच रही थी। राजकुमारी ने धनुष पर बाण चढ़ाकर लल- कारकर कहा-वही खडा रह, और अपना अभिप्राय कह। कालरूप राजकुमारी को सम्मुख देख वह व्यक्ति भयभीत स्वर में बोला- मुझे किले मे आने दीजिए, बहुत ज़रूरी सन्देश है। "वह सन्देश वही से कह।" "वह अतिशय गोपनीय है।" "कुछ चिन्ता नही, कह।" "किले मे आकर कहूंगा।" "उससे प्रथम यह तीर तेरै कलेजे के पार हो जाएगा।" "महाराज विपत्ति में है, मैं उनका चर हूं।" "चिट्ठी हो तो फेंक दे।" "जबानी कहना है।" "जल्दी कह।" "यहा से नहीं कह सकता।" "तब ले।" राजकुमारी ने तीर छोड दिया। वह उसके कलेजे को पार करता हुआ निकल गया। राजकुमारी ने सीटी दी। दो सैनिक आ उपस्थित हुए। कुमारी की आज्ञा पा रस्सी के सहारे उन्होने नीचे जा मृत व्यक्ति को देखा-यवन था। दूसरा व्यक्ति पीठ पर गठरी मे बधा था। यह देख राजकुमारी जोर से हस पड़ी। इसके बाद वह प्रत्येक बुर्ज पर घूम-घूमकर प्रबन्ध और पहरे का निरीक्षण कर रही