पृष्ठ:बाहर भीतर.djvu/१४७

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वीर बादल चित्तौड की महारानी पद्मिनी की प्रतिष्ठा एक अल्प वयस्क वीर बालक ने किस शौर्य और साहस से वचाई, इस कहानी में यही चित्रित है। तेरहवीं शताब्दी बीत रही थी। निर्दय और इन्द्रियलोलुप पठान अलाउद्दीन खिलजी भारत का नम्राट् था। उसने अपनी दुर्धर्ष सेना के बल पर राजपूताना को कुचल डाला था, और अब वह राजपूताने की बची-खुची आबरू को लूटने के लिए दलबल सहित चित्तौड पर चढ आया था। चित्तौड पर दुर्भाग्य उदय हुआ था। इस बार उसका इरादा चित्तौड-विजय का न था, प्रत्युत चित्तौड़ की महारानी पद्मिनी को हरण करने का था। चित्तौड़ की आतरिक अवस्था अच्छी न थी, राणा लक्ष्मणसिंह नाबालिग थे और उनके चाचा भीमसिह चित्तौड के कर्ताधर्ता थे। पद्मिनी भीसिह की पत्नी थी। वह पद्मराग मणि के समान सुन्दर और कान्तिवाली थी। उसके सौन्दर्य की तारीफ राजपूताने भर मे फैली हुई थी और सौन्दर्यलोलुप अलाउद्दीन खिलजी पूरी शक्ति से उस सौन्दर्य-कुसुम को लूटने चित्तौड़ पर चढ़ आया था। किला चारो ओर से घिरा हुआ था और किसी भी आदमी का किले से बाहर जाना या बाहर से भीतर आना सम्भव न था। किले में खाद्य-सामग्री अभी इतनी थी कि वो घेरा पड़ा रहने पर भी उसकी कमी न होती। परन्तु पानी का अभाव था। लोगो ने प्रथम स्नान आदि बन्द किए। अब पीने मे भी किफायत पर नौबत आ पहुची। अलाउद्दीन को चित्तौड को घेरे नौ मास हो चुके थे। किला फतह होने को कोई युक्ति सूझ न पड़ी थी। भारतीय राजनीति का वातावरण उस समय अन्यन्त क्षुब्ध था। मालवा, गुजरात, बंगाल और दिल्ली से अशान्तिपूर्ण खबरे आ रही थी। अलाउद्दीन ने समझा कि इस सौन्दर्य की देवी के पीछे कही हिन्द का तख्त ही न खोना पडं । वह जल्द से जल्द चित्तौड़ के मामले को खतम करने का मन्सूबा बाधने लगा। मन ही मन उसने कपट का जाल बिछाया और फिर सुलह का झण्डा १५०