पृष्ठ:बाहर भीतर.djvu/१५६

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बाण-वधू १५६ "तारा बेटी, तुम्हारा यह कार्य प्रशसा के योग्य नही । तुम राजकुल की कन्या हो; यो पुरुष-वेश मे घूमते फिरना और शिकार करना तुम्हे उचित नहीं। जाओ, भीतर बैठो।" "पिता जी, जब मर्दो ने मर्द के सब काम और बर्ताव तक छोड दिए, स्त्री जैसे बन गए-पर स्त्री का प्रधान गुण लज्जा एक बार ही तज बैठे-और चुपचाप शत्रु की लात सहते बैठे है, तब स्त्रियो को विवश यह वेश लेना पड़ता है।" "तारा, ऐसा तर्क, ऐसी प्रगल्भता तुमने किससे सीखी ?" "पिता जी, तब बाघ का बच्चा न देखोगे ? मा, आओ तुम देखो।" "चलो बेटी, देखू तेरा बाघ ।" - "मै सुन चुकी, मेरे कान पक गए। यह सड़ा हुआ वाक्य-'तुझे चाहता हू' मैं नही सुनना चाहती, मैं इससे घृणा करती है।" "तारा, तुम्हे सुनना ही होगा।" "कुंवर, तुम चाहे चाहो, चाहे न चाहो, इससे किसीका कुछ व नता-बिगड़ता नही।" "आह ! कैसी पापाणहृदय नारी हो? किसने तुम्हें यह रूप दिया?" "मूर्ख विधाता ने, जिसने तुम्हें मर्द और मुझे औरत बनाया।" "तारा, तुम प्रेम का महत्त्व नही समझती।" "नही समझती, वह तत्त्व मुझे सिखाया नहीं गया, वह विमियों के सम्भोग की विद्या है, घर-द्वार और राज्य से विहीन सामन्त की दरिद्र कन्या के लिए उप- युक्त नही।" "तुम्हारी इच्छा क्या है ?" "जब तक पिता का राज्य वापस न लूगी, किसी विषय को मन मे स्थान न दूगी।" "यह किस भांति होगा?", "मैं नहीं जानती, पर मेरे सोचने का यही विषय है । मै अकेली स्त्री हू । माना कि शस्त्र-विद्या जानती हूं, पर जब सभी मर्द निश्चिन्त बैठे हैं, मैं अकेली क्या करूगी ?" "क्या ब्याह की रुकावट यही है ?"