पृष्ठ:बाहर भीतर.djvu/१५९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

१६२ बाण-वधू "क्या यह सत्य है ?" "आज मुहर्रम है, अभी तीन पहर दिन शेष है। मुसलमान सब मुहर्रम में लग रहे हैं, मेरे पाच सहस्र शूर छिपे तैयार खड़े हैं, केवल एक घण्टे का मार्ग है । क्या तुम स्वयं तमाशा देखना चाहती हो?" "सहर्ष।" "तब चलो, क्या पिता से आज्ञा लोगी?" "आवश्यकता नहीं।" "तब चलो।" “कुमारी,समस्त सेना कोट के बाहर खाई में छिपी रहने दो, हम लोग दुर्ग में चलेंगे।" "अकेले?" "क्या भय लगता है ?" "नही कुमार, तुम्हारे साथ भय !" "कुमारी, तुम्हारा असली आखेट तो वही है।" "तब चलो।" "विजयसिंह !" “महाराज !" "संकेत का शब्द सुनते ही दुर्ग में बलपूर्वक घुस पड़ना।" "जो आज्ञा।" "कुमारी !" "कुंवर !" "चलो।" "चलो।" "कुमारी, तुम्हारा अश्व बड़ा चपल है, इसे तनिक वश में रखो, नही तो नागरिक लोग इधर ही देखने लगेंगे, यह शत्रुपुरी है।" "कुवर, आज इसे स्वच्छन्द विचरण करने दो।" "क्षणभर ठहरकर देखो, कितनी भीड़ है, आज सभी मस्त हो रहे हैं।"