पृष्ठ:बाहर भीतर.djvu/१६१

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बाण-वधू "विजयसिंह !" (सेना का दुर्ग में प्रवेश, भयानक मार-काट, दुर्ग-विजय) "तारा पुत्री, ये मेवाड़ के राजकुमार पृथ्वीपाल हैं, इन्हें प्रणाम करो। इन्होने सुलतान को मारकर तुम्हारे पिता का राज्य उद्धार किया है।" "पिताजी, मैं इनका यश सुन चुकी हूं।" "राजकुमार, यही मेरी कन्या तारा है, मुझ दरिद्र के मस्तक का मुकुट, मेरे जीवन की डोर । तारा!" "पिताजी !" "तुम्हे अपनी प्रतिज्ञा याद है ?" "जी हा, पिताजी!" "कुंवर, तुम्हे मैं जामाता बनाता हूं, यदि तुम दरिद्र का यह दान स्वीकार करो। मैं तो नही, पर तारा तुम्हारे योग्य है।" "महाराज, , यदि आपकी पुत्री स्वीकार करें "वह तो कर चुकी। हाथ आगे लाओ पुत्री, तुम भी आगे बढ़ो पृथ्वी, मेवाड़ में वीर, मैंने तुम्हें अपनी पुत्री दी।" "पिंता, हम आपको प्रणाम करते है।" "दोनों चिरंजीव रहो; सुपुत्र और सुयश के भागी बनो।"