पृष्ठ:बाहर भीतर.djvu/१६३

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१६६ नवाब ननकू - "अजी हम है नवाब साहब । गज़ब करते हैं आप भाई साहब ! अभी लम्हा भर हुआ है सूरज छिपे, और आपके लिए आधी रात हो गई ! चीखते-चीखते गला फट गया। मुहल्ला सिर पर उठा डाला।" बड़ा गुस्सा आया उस नवाब के बच्चे पर। जी में आया, कच्चा ही चबा जाऊं। परन्तु जब्त करके कहा-कहिए नवाब साहब, इस वक्त कैसे ? "अजी, दरवाजा तो खोलिए, या गली में खडे ही खड़े राग अलापू।" मन ही मन दांव-पेच खाता नीचे उतरा और कुण्डी खोली। नवाब साहब चुपचाप पीछे-पीछे जीना चढ़कर ऊपर आए, आते ही मसनद पर बेतकल्लुफी से उठग गए। कहने लगे-खुदा की मार इस सरदी पर। हड्डिया तक ठण्डी पड़ गई। मगर उस्ताद, खूब मजे मे आप मीठी नीद ले रहे थे। मैंने कहा-आपके मारे कोई सोने पाए तब तो। कहिए, इस वक्त कैसे तकलीफ की? नवाब साहब ने बेतकल्लुफी से हंसकर कहा-यों ही, बहुत दिन से भाभी साहिबा के हाथ का पान नही खाया था, सोचा : पान भी खा आऊं और सलाम भी करता आऊ। गुस्सा तो इतना आ रहा था कि मर्दूद लो धकेल दू नीचे। मगर मैंने गुस्सा पीकर कहा-पूरे नामाकूल हो तुम । कल इतवार था। कल यह सलाम की रस्म पूरी नहीं कर सकते थे, जो इस वक्त आराम मे खलल डाला? नवाब साहब खिलखिलाकर हंस पड़े। जेब से सिगरेट का बक्स और दिया- सलाई निकालकर एक होठो में दबाई, दूसरी मेरी ओर बढ़ाते हुए कहा-खैर, सिगरेट तो पिओ और गुस्सा थूक दो। हां, चालीस रुपये मेरे हवाले करो और इसे रखोसंभालकर। उन्होने बगल से पोटली निकालकर मेरे आगे सरका दी। मैंने कहा- यह क्या बला है, और इस वक्त रुपयों के बिना कौन कयामत बरपा हो रही थी? नवाब साहब को भी गुस्सा आ गया। कहने लगे कयामत नहीं बरपा हो रही थी तो मैं यों ही झख मारने आया हूं इस वक्त ? हज़रत, यह मेरी भी पीनक का वक्तथा। "मगर इस वक्त रुपये तुम क्या करोगे?"