पृष्ठ:बाहर भीतर.djvu/१६४

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१६७ नवाब ननकू N "फेंक दूगा सडक पर, तुम्हे इससे मतलब ?" "रुपये नही हैं।" "रुपये न होने की खूब कही, बुलाऊ भाभी को ?" "भाभी तुम्हारी क्या तोप से उडा देंगी, बुलाओ चाहे जिसको, रुपये नही हैं।" "समझ गया, बेहयाई पर कमर कसे हुए हो। लाओ, चुपके से रुपये दे दो, अभी मुझे सदर तक दौडना होगा।" "सदर तक क्यो?" "एक बोतल व्हिस्की और गजक लेने, और क्यो।" "अच्छा, तो हज़रत शराब के लिए रुपये चाहिए !" "जी हा, शराब के लिए, और कवाब के लिए भी। निकालो जल्दी से।" "कह तो दिया, रुपये नही है।" "तुमने तो कह दिया, पर हमने तो सुना ही नहीं।" "नही सुना तो जहन्नुम में जाओ।" "कही भी हम जाए तुम्हारी बला से, लाओ तुम रुपये दो।" "रुपये नही दुगा, अब तुम खसकन्त हो यहां से नवाब।" "चे खुश । रुपये तो मैं खड़े-खड़े अभी लूगा तुमसे।" "क्या तुम्हारा कर्ज चाहिए मुझपर?" "कर्ज़ ही तो मागता हू।" "मै कर्ज़ नही देता।" "देखता हू कैसे नही दोगे, बुलाओ भाभी को अपनी हिमायत पर।" नवाब ने गुस्से से आस्तीन चढानी शुरू की। मुझे बुरी तरह हसी आ गई। कहा-क्या मारपीट भी करने पर आमादा हो? "मारपीट ! तुम मारपीट की कहते हो, मैं तुम्हे गोली न मार दू तो नवाब ननकू नही।" मैंने हसकर कहा-गोली मार दोगे तो फिर रुपया कहां से वसूल करोगे नवाब साहब? "बस, इसी बात को सोचकर तो तरह दे जाता हू, निकालो रुपये।" "लेकिन नवाब, तुम तो कभी नही पीते थे, आज यह क्या बात है ?"