पृष्ठ:बाहर भीतर.djvu/१६५

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नवाब ननक १६८ "तो क्या मैं अपने लिए मांगता हूं ? मैंने कभी पी है ?" "फिर किसके लिए ?" "राजा साहब के लिए।" "अच्छा-यह बात है, अब समझा। कोई नई चिड़िया आई है क्या ?" "राजेश्वरी आई है बनारस से।" "तो तुम क्यों उस शराबी के लिए झख मारते फिरते हो?" "तब कोन झख मारे ! तुम चाहते हो, राजा साहब खुद तुम्हारे दरवाजे पर आकर चालीस-चालीस रुपल्ली के लिए जलील होते फिरे ?" "वे कुछ भी करें, तुम्हें क्या? जो जैसा करेगा, भोगेगा। जिसने लाखों की जमीन-जायदाद, ज़र-जवाहरात, सब शराब और रण्डी-भड ओ में फूक दी, तुम उससे क्यो इतनी हमदर्दी रखते हो?" "क्या मै हमदर्दी रखता हूं?" "तब?" "मैं मुहब्बत करता हूं उनसे भाई, उनकी इज्जत करता हूं।" "किसलिए? आखिर सुनू तो।" "किसलिए? सुनो, पहले तो वे मेरे बड़े भाई, दूसरे ऐसे दाता, ऐसे प्रेमी, ऐसे बात के धनी, ऐसे दिल वाले कि दुनिया में चिराग लेकर ढूढो तो कही मिल नहीं सकते।" "शराबी और रंडीबाज भी क्यों नहीं कहते ?" "वह तुम कहो। वे शराब पीते हैं और रण्डियों से आशनाई करते है, इसमें किसीका क्या लेते है ? उन्होंने अपनी लाखों की जायदाद उन्हें दे दी, जिन्हे उन्होने प्यार किया। आज उनका हाथ खाली है, मगर दिल बादशाह है। वे जीते जी बादशाह रहेंगे। मै उन्हें पसन्द करता हूं, प्यार करता हूं, इज्जत करता हूं। मैं नही बर्दाश्त कर सकता कि वे दुनिया के आगेहाथ फैलाएं।" "और तुम उनके लिए भीख मांगते फिरते हो।" "किससे मैंने भीख मांगी है, कहो तो।" नवाब ने तैश में आकर कहा । "यह अभी लुम चालीस रुपये माग रहे हो?" "और यह क्या है ?" ने सामने की पोटली की ओर इशारा किया।